भावश्रुत द्वारा अंतर आत्माने जाणे ए तो परमार्थ श्रुतकेवळी छे. परंतु ज्ञाननी पर्याय बीजुं बधुं जाणे, सर्व श्रुत जाणे, बार अंग जाणे, छ द्रव्य अने तेमना गुणपर्यायोने जाणे एम समस्त परने जाणे तेथी व्यवहार श्रुतकेवळी कहे छे. ज्ञाननी पर्यायमां सर्व ज्ञेयो जणाय ए ज्ञाननी पर्याय ज्ञेयनी नथी, परंतु आत्मानी ज छे. ए जाणनारी ज्ञानपर्याय ते आत्मा-एम भेद पडयो ते व्यवहार छे.
ज्ञाननी पर्यायमां पर ज्ञेयो जणाय भले, पण ए ज्ञानपर्यायनो संबंध कोनी साथे छे? ए ज्ञेयनुं ज्ञान छे के ज्ञातानुं? तो कहे छे के सर्वश्रुतने जाणनारुं ज्ञान ज्ञातानुं छे, आत्मानुं छे. ते ज्ञाननी पर्यायने आत्मा साथे तादात्मय छे. ते ज्ञान आत्माने बतावे छे-तेथी ते भेदरूप व्यवहार छे. व्यवहार परमार्थनो प्रतिपादक छे. तेथी सर्व श्रुतज्ञानने जाणे ते व्यवहार श्रुतकेवळी छे.
प्रथम “जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” ते तो परमार्थ छे. टीकामां कह्युं छे के प्रथम श्रुतथी एटले भावश्रुतथी-के जे भावश्रुत राग विनानुं, निमित्त विनानुं, मनना पण संबंध विनानुं छे तेनाथी केवळ अखंड एक शुद्धात्माने जाणे ते श्रुतकेवळी छे ए तो परमार्थ छे, निश्चय छे, यथार्थ छे.
अने “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे”-ते व्यवहार छे. सर्व श्रुतज्ञानने जाणे एटले पर पदार्थनुं बधुं ज्ञान पोतानी पर्यायमां जाणे ते श्रुतकेवळी छे-ए व्यवहार छे. भावश्रुतथी जे प्रत्यक्ष एक शुद्धात्माने जाणे ते श्रुतकेवळी ए निश्चय अने जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे ते श्रुतकेवळी ए व्यवहार. आ तो जन्म-मरण मटाडवानी, भवना अंतनी वात छे. जे ज्ञाननी पर्यायमां बीजुं बधुं जणायुं ए ज्ञानपर्याय ज्ञेयनी छे के आत्मानी? ए ज्ञान ज्ञेयनुं नथी पण ए ज्ञान आत्मा साथे संबंध धरावे छे. एटले सर्वने जाणनारुं ए ज्ञान आत्मा ज छे. आ ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम भेद पडतो होवाथी व्यवहार छे.
अहीं बे पक्ष लई परीक्षा करीए छीएः-उपर कहेलुं सर्व ज्ञान आत्मा छे के अनात्मा? जो अनात्मानो पक्ष लेवामां आवे तो ते बराबर नथी, कारण के समस्त जे जडरूप अनात्मा आकाशादि पांच द्रव्यो छे तेमनुं ज्ञान साथे तादात्म्य बनतुं ज नथी.
आकाशादि पांच द्रव्यो जड छे. तेमनी साथे ज्ञाननी पर्यायनो तादात्म्य संबंध नथी. ए ज्ञाननी पर्यायने आत्मा साथे तादात्म्य छे. ज्ञाननी पर्याय देव-गुरु-शास्त्रने जाणे,