कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत्–
भूतार्थमाश्रितः
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ११
हवे वळी एवो प्रश्न ऊठे छे के-पहेलां एम कह्युं हतुं के व्यवहारने अंगीकार न करवो, पण जो ते परमार्थनो कहेनार छे तो एवा व्यवहारने केम अंगीकार न करवो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-
गाथार्थः– [व्यवहारः] व्यवहारनय [अभूतार्थः] अभूतार्थ छे [तु] अने [शुद्धनयः] शुद्धनय [भूतार्थः] भूतार्थ छे एम [दर्शितः] ऋषीश्वरोए दर्शाव्युं छे; [जीवः] जे जीव [भूतार्थ] भूतार्थनो [आश्रितः] आश्रय करे छे ते जीव [खलु] निश्चयथी [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [भवति] छे.
टीकाः– व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थने प्रगट करे छे; शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी विद्यमान, सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. आ वात द्रष्टांतथी बतावीए छीएः-जेम प्रबळ कादवना मळवाथी जेनो सहज एक निर्मळभाव तिरोभूत (आच्छादित) थई गयो छे एवा जळनो अनुभव करनारा पुरुषो-जळ अने कादवनो विवेक नहि करनारा घणा तो, तेने (जळने) मलिन ज अनुभवे छे; पण केटलाक पोताना हाथथी नाखेला कतकफळ-(निर्मळी औषधि)ना पडवामात्रथी ऊपजेला