Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 11.

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जीव–अजीव अधिकार
गाथा–११

कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत्–

ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।
११।।

व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः।
भूतार्थमाश्रितः
खलु सम्यग्द्रष्टिर्भवति जीवः।। ११।।

व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ११

हवे वळी एवो प्रश्न ऊठे छे के-पहेलां एम कह्युं हतुं के व्यवहारने अंगीकार न करवो, पण जो ते परमार्थनो कहेनार छे तो एवा व्यवहारने केम अंगीकार न करवो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

गाथार्थः– [व्यवहारः] व्यवहारनय [अभूतार्थः] अभूतार्थ छे [तु] अने [शुद्धनयः] शुद्धनय [भूतार्थः] भूतार्थ छे एम [दर्शितः] ऋषीश्वरोए दर्शाव्युं छे; [जीवः] जे जीव [भूतार्थ] भूतार्थनो [आश्रितः] आश्रय करे छे ते जीव [खलु] निश्चयथी [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [भवति] छे.

टीकाः– व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थने प्रगट करे छे; शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी विद्यमान, सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. आ वात द्रष्टांतथी बतावीए छीएः-जेम प्रबळ कादवना मळवाथी जेनो सहज एक निर्मळभाव तिरोभूत (आच्छादित) थई गयो छे एवा जळनो अनुभव करनारा पुरुषो-जळ अने कादवनो विवेक नहि करनारा घणा तो, तेने (जळने) मलिन ज अनुभवे छे; पण केटलाक पोताना हाथथी नाखेला कतकफळ-(निर्मळी औषधि)ना पडवामात्रथी ऊपजेला