Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भाग-१ ] १३३

जळ-कादवना विवेकपणाथी पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक निर्मळभावपणाने लीधे, तेने (जळने) निर्मळ ज अनुभवे छे; एवी रीते प्रबळ कर्मना मळवाथी जेनो सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत थई गयो छे एवा आत्मानो अनुभव करनार पुरुषो-आत्मा अने कर्मनो विवेक नहि करनारा, व्यवहारथी विमोहित हृदयवाळाओ तो, तेने (आत्माने) जेमां भावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) प्रगट छे एवो अनुभवे छे; पण भूतार्थदर्शीओ (शुद्धनयने देखनाराओ) पोतानी बुद्धिथी नाखेला शुद्धनय अनुसार बोध थवामात्रथी ऊपजेला आत्म-कर्मना विवेकपणाथी, पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक ज्ञायकभावपणाने लीधे तेने (आत्माने) जेमां एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान छे एवो अनुभवे छे. अहीं, शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे तेथी जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यक् अवलोकन करता (होवाथी) सम्यग्द्रष्टि छे पण बीजा (जेओ अशुद्धनयनो सर्वथा आश्रय करे छे तेओ) सम्यग्द्रष्टि नथी. माटे कर्मथी भिन्न आत्माना देखनाराओए व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.

भावार्थः– अहीं व्यवहारनयने अभूतार्थ अने शुद्धनयने भूतार्थ कह्यो छे.

जेनो विषय विद्यमान न होय, असत्यार्थ होय, तेने अभूतार्थ कहे छे. व्यवहारनयने अभूतार्थ कहेवानो आशय एवो छे के-शुद्धनयनो विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य छे, तेनी द्रष्टिमां भेद देखातो नथी; माटे तेनी द्रष्टिमां अविद्यमान, असत्यार्थ ज कहेवो जोईए. एम न समजवुं के भेदरूप कांई वस्तु ज नथी. जो एम मानवामां आवे तो तो जेम वेदांत-मतवाळाओ भेदरूप अनित्यने देखी अवस्तु मायास्वरूप कहे छे अने सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मने वस्तु कहे छे एवुं ठरे अने तेथी सर्वथा एकांत शुद्धनयना पक्षरूप मिथ्याद्रष्टिनो ज प्रसंग आवे. माटे अहीं एम समजवुं के जिनवाणी स्याद्वादरूप छे, प्रयोजनवश नयने मुख्य-गौण करीने कहे छे. प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे. शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छे-कयांक कयांक छे. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी (मुख्यताथी) दीधो छे के-‘शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे; एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यां सुधी आत्माना ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व थई शकतुं नथी.” एम आशय जाणवो.