कोई कहे छे मूर्ति न माने तो धर्म थाय. अहीं कहे छे के भगवाननी मूर्ति छे. तेने माने ते शुभराग छे, धर्म नथी. आ शुभराग छे ते असत्यार्थ छे एम कह्युं छे. दया पाळे, लाखोनुं दान करे, भगवाननी भक्ति करे, ए तो शुभभाव छे, तेथी पुण्य बंधाय, धर्म न थाय धर्म जुदी चीज छे, भाई! जिनेन्द्रनो मार्ग लौकिक मार्ग साथे मेळ खाय तेवो नथी.
आ अगियारमी गाथा जैनदर्शननो प्राण छे. प्राण वडे जीव जीवे छे. जेम प्राण विनानां मडदां कहेवाय तेम आ गाथाना रहस्यने न समजे तेने सम्यग्दर्शन न थाय. ते जीवो पण प्राण विनानां मडदां जेवा छे. अखंड वस्तुमां भेद पाडीने जाणवुं के ‘आ ज्ञान ते आत्मा’ ए व्यवहार असत्यार्थ छे. व्यवहारनय सघळो (चारेय प्रकारनो) असत्यार्थ छे. आ तो जन्म-मरणना अंत आवे एवी अलौकिक धर्मकथा छे. तेने धीरजथी, शांतिथी, ध्यान दईने सांभळवी जोईए. आ सघळो व्यवहार असत्यार्थ कहीने निषेध्यो छे, छोडाव्यो छे; केमके तेना आश्रयथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
भगवान आत्मा अमृत-सागरथी भरेलो छे. ते अभेद, एकरूप पूर्णानंद वस्तु भूतार्थ छे. तेने व्यवहारनय अन्य रीते प्रगट करे छे. पर्यायमां जे रागादि छे ते आत्माना छे, रागने जाणे ते आत्मा छे, अने आ ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम अनेक प्रकारे अभूत अर्थने प्रगट करे छे. आ चारेय प्रकारनो व्यवहार अभूतार्थ होवाथी एटले के तेनो विषय सत्य नहि होवाथी अर्थात् एनो विषय असत्य होवाथी अर्थात् जे नथी तेवा अविद्यमान अर्थने प्रगट करतो होवाथी जूठो कही, तेनुं लक्ष करवानुं छोडाव्युं छे. तेथी व्यवहार छे एम जाणवा माटे छे, पण आदरवा योग्य नथी, आश्रय करवा लायक नथी.
अहो! अरिहंतदेवनी ॐध्वनि जे नीकळी तेनो सार-सार लई श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे परमागमनी आ गाथामां भरी दीधो छे. एक समयमां अभेद, अखंड, निर्मळानंद जे आत्मवस्तु छे ते भूतार्थ एटले छतो-छतो-छतो विद्यमान पदार्थ सत्य छे. तेनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने वीतरागी शांतिनी प्राप्तिना प्रयोजननी सिद्धि थाय छे तेथी ते मुख्य छे. अने सघळो जे व्यवहार छे ते असत्यार्थ छे. तेना आश्रये प्रयोजननी सिद्धि थती नथी तेथी ते गौण छे, लक्ष करवा योग्य के आश्रय करवा योग्य नथी. भाइ! जैनधर्म तो कोई अलौकिक चीज छे. कह्युं छे ने के-
जुओ, आ जिनप्रवचन एटले भगवान जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिनो मर्म कहेतां सार आटलो छे के-जिनस्वरूप आत्मा छे, एटले आत्मा वीतराग स्वभाव छे, ते भूतार्थ