सार एटले हितकारी अने असार एटले अहितकारी. त्यां हितकारी सुख जाणवुं, अहितकारी दुःख जाणवुं; कारण के अजीव पदार्थ-पुद्गल, धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश, काळ अने संसारी जीवने ज्ञान पण नथी, सुख पण नथी. अने तेमनुं स्वरूप जाणनार जीवने पण ज्ञान अने सुख नथी. परने जाणे तेने ज्ञान क्यांथी होय? ते आत्म-साधक ज्ञान क्यां छे? ते तो परलक्षी ज्ञान छे.
परने जाणतां-एमां संसारी जीवने जाणतां, एम कहेतां सिद्धने जाणतां एम पण गौणपणे आवी जाय छे. (निश्चयथी जीव पोताने जाणे त्यारे तेणे सिद्धने जाण्या एम (व्यवहारे) कहेवाय. शब्दो होय तेनो न्याय लेवो जोईए ने? सिद्ध ने ज्ञान छे, सुख छे; पण सिद्ध समान स्वरूप पोतानुं छे तेने जाणतां पोताने ज्ञान अने सुख थाय. झीणी वात छे, भाई! सिद्ध पण आ आत्मानी अपेक्षाए पर वस्तु छे. अहा! पर वस्तुने जाणतां ज्ञान अने सुख केम होई शके? अंतरआत्मा शुद्ध वस्तु छे, तेने जाणतां साचुं ज्ञान अने साचुं सुख थाय. आम वात छे. जे त्रिकाळशुद्ध जीव छे तेने जाणतां पर्यायमां ज्ञान अने सुख थाय-आनंदनो अनुभव थाय; निमित्तने जाणतां कांई नहि. (परने जाणतां साचुं ज्ञान अने साचुं सुख थाय नहि).
पोताने जाणतां ज्ञान थाय; अरिहंतने जाणे माटे साचुं ज्ञान थई जाय छे एम नथी. ‘जे खरेखर अरिहंतने द्रव्य-गुण-पर्यायपणे जाणे छे ते खरेखर पोताना आत्माने जाणे छे’, एवुं जे प्रवचनसारमां (गाथा ८०) लीधुं छे एनो आशय एवो छे के- प्रथम अरिहंतनां द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे एटले मनथी कळे, मनथी कळे एटले विकल्पपूर्वक जाणे; पछी एनुं लक्ष छोडी पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायने भेदथी जाणे, पछी एवा भेदने समावी दे-समावी दे एटले द्रव्य-गुण-पर्यायना भेदनुं लक्ष छोडी अंतरमां स्थित थाय. (त्यारे तेने अतीन्द्रिय सुख प्रगटे छे अने त्यारे पोताना आत्माने जाण्यो एम कहेवाय छे.)
स्वना आश्रये थाय ते सम्यग्ज्ञान पर्याय छे. पर्याय परनी हो के स्वनी हो, पर्यायनुं लक्ष थतां पण विकल्प ऊठे छे. अनंत गुणोनी पर्याय अंदरमां ज्यारे द्रव्य तरफ ढळे छे त्यारे तेने ज्ञान अने सुख थाय छे. भाई! सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवनो मार्ग एटले शुद्ध-जीवनो मार्ग कोइ अलौकिक छे!
छ द्रव्यो एटले संसारी जीवो, अने बीजां पांच द्रव्यो; एनुं गमे तेटलुं विशाळ ज्ञान थाय तोपण सुख न थाय. जे त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यघन ध्रुवस्वभाव भगवान केवळीए