समयसार गाथा-१९३ ] [ ११ रागद्वेषमोह छे ज नहि. माटे सम्यग्द्रष्टि विरागी छे. तेने रागनुं एकत्व नथी माटे ते विरागी छे.
स्तवनमां नथी आवतुं के-‘भरतजी घरमें विरागी?’ भरत चक्रवर्ती छ खंडना अधिपति हता. तेमने ९६००० राणीओ, ९६ करोड पायदळ, ९६ करोड गाम हतां. अपार वैभव छतां तेओ विरागी हता, केमके कोई परवस्तुमां तेमने एकत्व-ममत्व न हतुं. आ बधी बहारनी चीज मारी छे एम अंतरमां मानता न हता. हुं तो चिदानंदघन-ज्ञान अने आनंदनुं ढीम प्रभु आत्मा छुं-एवुं अनुभवमंडित द्रढ श्रद्धान हतुं. ज्यारे अज्ञानी हुं ज्ञानमय छुं एम नहि पण हुं रागमय छुं, पुण्यमय छुं, पापमय छुं, शरीरमय छुं एम मिथ्या प्रतीति करे छे. आ बधी बहारनी चीजो-स्त्री, दीकरा- दीकरी, धन-संपत्ति आदि-मारी छे एम माने छे. तेथी ते रागी छे. सम्यग्द्रष्टिने परमां अने रागमां एकत्व नथी तेथी ते विरागी छे.
‘तेने भोगनी सामग्री प्रत्ये राग नथी. ते जाणे छे के-“आ (भोगनी सामग्री) परद्रव्य छे, मारे अने तेने कांई नातो नथी; कर्मना उदयना निमित्तथी तेनो अने मारो संयोग-वियोग छे.”...’
जुओ, शरीर, इन्द्रियो अने भोगना विषयरूप पदार्थो ए सर्व प्रत्ये समकितीने राग नथी. ए तो ए सर्वने परद्रव्य जाणे छे. ए सर्व मारां नहि अने हुं एमनो नहि एम सर्वने पोताथी भिन्न जाणतो ते एम माने छे के मारे अने ते सर्वने कांई पण नातो-संबंध नथी. अहाहा...! आ इन्द्रियोने तथा शरीरने मारी साथे कांई संबंध नथी एम ते जाणे छे. अरे, आ खंडखंडरूप जे भावेन्द्रिय छे ते पण मारो स्वभाव नथी अने तेथी भावेन्द्रिय साथे पण मने कांई संबंध नथी एम ज्ञानी माने छे. आवो धर्मनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई! जेनाथी जन्म-मरण रहित थवाय ते धर्म छे अने ते बहु सूक्ष्म छे. बीजे तो अत्यारे व्रत करो ने तप करो इत्यादि राग करवा सिवायनी धर्मनी वात चालती ज नथी!
धर्मी जीव तो एम जाणे छे के आ शरीर, इन्द्रियो अने अन्य पदार्थो ए सर्व कर्मना उदयना निमित्ते मळ्या छे अने कर्मनुं निमित्त न होतां तेनो वियोग थाय छे. सामग्रीना संयोग-वियोगमां कर्मनुं निमित्त छे पण एमां हुं निमित्त नथी अने ए संयोग-वियोगमां हुं छुं एम पण नथी.
हवे कहे छे-‘ज्यां सुधी तेने चारित्रमोहनो उदय आवीने पीडा करे छे अने पोते बळहीन होवाथी पीडा सही शकतो नथी त्यां सुधी-जेम रोगी रोगनी पीडा सही शके नहि त्यारे तेनो औषधि आदि वडे ईलाज करे छे तेम-भोगोपभोग सामग्री वडे विषयरूप ईलाज करे छे;...’