तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि।। १९४।।
ए उदित सुखदुख भोगवे पछी निर्जरा थइ जाय छे. १९४.
सुख अथवा दुःख [नियमात्] नियमथी [जायते] उत्पन्न थाय छे; [उदीर्ण] उदय थयेला अर्थात् उत्पन्न थयेला [तत् सुखदुःखम्] ते सुखदुःखने [वेदयते] वेदे छे- अनुभवे छे, [अथ] पछी [निर्जरां याति] ते (सुखदुःखरूप भाव) निर्जरी जाय छे.
टीकाः– परद्रव्य भोगववामां आवतां, तेना निमित्ते सुखरूप अथवा दुःखरूप जीवनो भाव नियमथी ज उदय थाय छे अर्थात् उत्पन्न थाय छे, कारण के वेदन शाता अने अशाता-ए बे प्रकारोने अतिक्रमतुं नथी (अर्थात् वेदन बे प्रकारनुं ज छे-शातारूप अने अशातारूप). ज्यारे ते (सुखरूप अथवा दुःखरूप) भाव वेदाय छे त्यारे मिथ्याद्रष्टिने, रागादिभावोना सद्भावथी बंधनुं निमित्त थइने (ते भाव) निर्जरतां छतां (खरेखर) नहि निर्जर्यो थको, बंध ज थाय छे; परंतु सम्यग्द्रष्टिने, रागादिभावोना अभावथी बंधनुं निमित्त थया विना केवळ ज निर्जरतो होवाथी (खरेखर) निर्जर्यो थको, निर्जरा ज थाय छे.
भावार्थः– परद्रव्य भोगवतां, कर्मना उदयना निमित्ते जीवने सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमथी उत्पन्न थाय छे. मिथ्याद्रष्टिने रागादिकने लीधे ते भाव आगामी बंध करीने निर्जरे छे तेथी तेने निर्जर्यो कही शकातो नथी; माटे मिथ्याद्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां बंध ज थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने रागादिक नहि होवाथी आगामी