२० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७
यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुञ्जानोऽपि न बध्यते।।
बंध कर्या विना ज ते भाव निर्जरी जाय छे तेथी तेने निर्जर्यो कही शकाय छे; माटे सम्यग्द्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां निर्जरा ज थाय छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने भावनिर्जरा थाय छे.
श्लोकार्थः–
[ज्ञानस्य एव] ज्ञाननुं ज छे [वा] अथवा [विरागस्य एव] विरागनुं ज छे [यत्] के [कः अपि] कोई (सम्यग्द्रष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि] कर्मने भोगवतो छतो [कर्मभिः न बध्यते] कर्मोथी बंधातो नथी! (अज्ञानीने ते आश्चर्य उपजावे छे अने ज्ञानी तेने यथार्थ जाणे छे.) १३४.
हवे भावनिर्जरानुं स्वरूप कहे छेः- जुओ, निर्जरा त्रण प्रकारे छे. कर्मनुं खरी जवुं ते (जडनी निर्जरा) द्रव्यनिर्जरा छे. अशुद्धतानुं टळवुं ते (पोतानी) भावनिर्जरा (नास्तिथी) छे अने शुद्धतानी वृद्धि थवी ते भावनिर्जरा (अस्तिथी) छे. तेमां द्रव्यनिर्जरानी वात गाथा १९३मां आवी गई. अहीं जे अशुद्धतानुं टळवुं ते भावनिर्जरानी वात आ गाथामां हवे कहे छे.
‘परद्रव्य भोगववामां आवतां, तेना निमित्ते सुखरूप अथवा दुःखरूप जीवनो भाव नियमथी ज उदय थाय छे अर्थात् उत्पन्न थाय छे, कारण के वेदन शाता अने अशाता -ए बे प्रकारोने अतिक्रमतुं नथी. (अर्थात् वेदन बे प्रकारनुं ज छे-शातारूप अने अशातारूप).’
अहाहा...! गाथामां बहु ज भर्युं छे. कहे छे-‘परद्रव्य भोगववामां आवतां...’ जुओ, परद्रव्य कांई भोगवी शकाय छे एम नथी, पण आ तो निमित्तनुं कथन छे. आ शरीर, दाळ, भात, शाक के स्त्रीनुं शरीर जे जड रूपी छे तेने आत्मा भोगवी