Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ हती. अहीं आ गाथामां तेने जे अशुद्धता थई ते खरी जाय छे एनी वात छे.

प्रश्नः– अमे तो उपवास करीए एटले तप थाय अने ‘तपसा निर्जरा’ तपथी

निर्जरा थाय छे एम मानीए छीए.

उत्तरः– भाई! तुं जेने उपवास कहे छे एनाथी तो धूळेय निर्जरा नथी, सांभळने; उपवास करवानो भाव तो राग छे अने रागथी तो निर्जरा नहि, बंधन थाय छे. उपवास तो सत्यार्थ एने कहीए के-उप नाम समीप अने वास एटले वसवुं; अहाहा...! आनंदस्वरूप निज आत्मामां वसवुं-ठरवुं एने उपवास कहे छे. बाकी तो बधा अपवास- अप एटले माठा वास छे. रोटला-पाणी छोडवां एने अज्ञानी उपवास कहे छे पण ए तो रागमां वसेलो (वास) अपवास छे, माठो वास छे.

अहा! अहीं भाषा एवी लीधी छे के-‘परद्रव्य भोगववामां आवतां’... , जो के परद्रव्यने आत्मा भोगवी शकतो नथी, पण तेने एवो राग-सुखदुःखनी कल्पना थाय छे अने ते काळे परद्रव्यमां जे चेष्टा-क्रिया थवा योग्य होय ते थाय छे. तेने ‘परद्रव्यने भोगवे छे’ एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. धर्मी जीव जेने ज्ञानानंदस्वभावी निज चैतन्यमय वस्तुनी ओळख-प्रतीति थई छे तेने कंईक राग आवे छे छतां द्रष्टिनी अपेक्षाए तेने ते भोगवतो नथी. द्रष्टिनो विषय परिपूर्ण शुद्ध चैतन्य परमात्मा छे अने एवा आत्मद्रव्यनो जेने आश्रय थयो छे ते ज्ञानी तो आत्माना आनंदने ज भोगवे छे. द्रष्टि निर्विकल्प छे अने तेनो विषय पण ध्रुव निर्विकल्प चैतन्य ज छे. तेथी द्रष्टिनी अपेक्षाए ज्ञानी आत्मा रागने-सुखदुःखनी कल्पनाने करतोय नथी अने भोगवतोय नथी, अर्थात् ज्ञानीने रागद्वेष थता ज नथी, अस्थिरताय थती नथी. (आ द्रष्टि अपेक्षाए वात छे).

परंतु अहीं एम सिद्धांत कहे छे के-परद्रव्यने भोगववामां आवतां तेना निमित्ते सुखरूप-दुःखरूप जीवनो भाव नियमथी उदय थाय छे, अर्थात् पर्यायमां जरी सुख दुःखनी कल्पना-अशुद्धता उत्पन्न थाय छे कारण के वेदन शाता अने अशाताना बे प्रकारोने अतिक्रमतुं नथी. जोके वेदन खरेखर शाता के अशाताना उदयने लईने थाय छे एम नथी पण वेदनमां शाता के अशातानो उदय निमित्त छे एम अहीं निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. अहा! शाताना उदयमां सुखरूप कल्पना अने अशाताना उदयमां दुःखरूप कल्पना ज्ञानीने पण पर्यायमां थाय छे एम कहे छे. अहा! जन्म-मरणथी रहित थवानो मार्ग बहु झीणो छे, भाई!

हवे कहे छे-‘ज्यारे ते (सुखरूप अथवा दुःखरूप) भाव वेदाय छे त्यारे मिथ्याद्रष्टिने, रागादिभावोना सद्भावथी बंधनुं निमित्त थईने (ते भाव) निर्जरतां छतां (खरेखर) नहि निर्जर्यो थको, बंध ज थाय छे;...’