२४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ थाय छे अने ते परिणाम नवा दर्शनमोहनीय आदि कर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे. जे कर्मनो उदय आव्यो हतो ए तो ते वखते खरी गयो छे, छतां पण तेने ते नवा बंधनुं निमित्त थाय छे ते कारणे तेने निर्जरा कहेवाती नथी. आवो मार्ग छे, भाई!
प्रश्नः– पण आवुं बधुं कयारे समजवुं? उत्तरः– हमणां ज; भाई! आ तो विशेष फुरसद लईने समजवा जेवुं छे. लौकिकमां पापना भणतर पाछळ, M. A. , L. L. B नां पुछडां वळगाडवा पाछळ केवां वर्षोनां वर्षो काढी नाखे छे? तो पछी आ तो जन्म-मरणरहित थवानी वात! तेने क्य ारे समजवी एवो तने केम प्रश्न थाय छे? अरे भाई! आ तो अंतर्मुहूर्तमां समजाई जाय एवो तारो भगवान आत्मा छे. पण रागनी रुचिथी खसी अंतरमां रुचि प्रगट करे तो ने! अहीं कहे छे-रागनी रुचिनुं परिणमन विद्यमान होवाथी अज्ञानी जीवने उदयमां आवेलां कर्म खरी जवा छतां नहि खर्यां थकां नवा बंधमां निमित्त थाय छे, अने तेथी अज्ञानीने निर्जरा थती नथी पण बंध ज थाय छे, हवे कहे छे-
‘परंतु सम्यग्द्रष्टिने, रागादिभावोना अभावथी बंधनुं निमित्त थया विना केवळ ज निर्जरतो होवाथी (खरेखर) निर्जयो थको, निर्जरा ज थाय छे.’
शुं कह्युं? ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मामां जेने सुखबुद्धि छे तेवा धर्मी समकितीने रागादिभावोनो अभाव होय छे. रागनी रुचि नथी ने? तेथी तेने रागादिभावोनो अभाव छे. ‘भरतेश वैभव’ मां आवे छे ने के-भरतने अस्थिरताने लीधे भोगनो जरी राग आव्यो अने भोगमां जोडाया, त्यां बाह्य क्रिया तो ते काळे जे थवानी हती ते तेना कारणे थई; परंतु त्यांथी खसीने जेवा अंदर गया, ध्यानमां बेठा के तरत ज निराकुळ आनंदनो अनुभव करवा लाग्या. कारण? कारण के छन्नु हजार स्त्रीना भोगकाळे पण भोगमां सुखबुद्धि-मीठाश न हती. आ मारगडा बहु जुदा छे बापा!
आत्मा तो एकला अमृतनो दरियो सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. तेना आनंदनी अनुभूति जेने थई तेने शाता-अशाताना उदयकाळे जरी अस्थिरतानुं परिणमन एक समय पूरतुं थाय छे. परंतु ते काळे तेने जे शाता-अशातानुं वेदन छे तेनो ते जाणनारो ज छे. ज्ञाननो स्वभाव स्व-परप्रकाशक छे ने? तेथी वेदनकाळे जे वेदन छे तेने ते जाणे ज छे. माटे ज्ञानीने थोडुं शाता-अशातारूप वेदन छे तोपण, तेमां सुखबुद्धि-मीठाश नहि होवाथी, ते बंधनुं निमित्त थया विना निर्जरी जाय छे. अहो! आवी अलौकिक वात सांभळवा मळवी पण मुश्केल छे.
कहे छे-सम्यग्द्रष्टिने पोताना स्वभावमां जे आनंद छे तेनो अनुभव छे. वळी साथे तेने जरीक दुःखनो अनुभव-सुखदुःखनी कल्पना जे वास्तविक दुःखरूप छे तेनुं वेदन-एक समय पूरतुं होय छे. परंतु ए बाह्य वेदनमां ज्ञानीने स्वामीपणुं नथी,