समयसार गाथा-१९४ ] [ २प तेथी ते सुखदुःखनी कल्पनारूप दुःखनी परिणति-एक समयनी अशुद्ध पर्याय-नवा बंधनुं निमित्त थया विना ज खरी जाय छे, निर्जरी जाय छे.
प्रश्नः– पोते रागने भोगवे छे छतां तेने (ज्ञानीने) रागनो सद्भाव नथी-ए केवी वात?
उत्तरः– भाई! ज्ञानीने रागनो सद्भाव नथी केमके पोताना शुद्ध चैतन्य साथे एकपणे परिणमता तेने रागमां एकत्व नथी, रागनुं स्वामित्व नथी, रागनी रुचि नथी. जुओ, नोआखलीमां नहोतुं बन्युं? के २० वर्षनो भाई अने २२ वर्षनी बहेन-ए भाई बहेनने सामसामे नग्न करीने ऊभा राख्या हता. अररर! आ शुं कहेवाय? जमीन फाटे तो अंदर समाई जईए एवुं तेमने थतुं हतुं. बन्नेनी आंखमांथी आंसुनी धारा वहेती हती. तेवी रीते समकितीने रागादिनुं जे जरी वेदन आवे छे तेनुं एने दुःख लागे छे, तेमां एने सुखबुद्धि नथी. जे परिणमननी अशुद्धता छे ते स्वभावनी द्रष्टिना जोरने लईने, विरागताना बळे फरीने नवो बंध कर्या विना निर्जरी जाय छे; तेने रागनुं वेदन खरेखर निर्जरी जाय छे.
तो वळी कोई कहे छे-आ सोनगढथी नवो मार्ग काढयो छे. भाई! आ तो दिगंबर संत धर्मना स्थंभ एवा आचार्य कुंदकुंदनी गाथा छे अने आचार्य अमृतचंद्रनी टीका छे. आ कयां सोनगढनुं छे? आचार्य भगवंतोए ज आवुं भावनिर्जरानुं स्वरूप कह्युं छे.
भाई! आ तो वीतरागशासन छे. रागथी धर्म थाय ने व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटे ए बधो वीतराग मार्ग नथी. वीतरागस्वरूपी भगवान आत्मा छे, ने तेना आश्रये जे वीतरागी दशा थाय ए ज धर्म छे. राग छे ए तो परना आश्रये थाय छे; शुभराग हो के अशुभ-बन्ने परना आश्रये थाय छे अने स्वयं अपवित्र अने दुःखरूप छे माटे ते धर्म नथी. रागथी तो भिन्न पडतां अंदर आत्मामां जवाय छे. तो पछी एनाथी लाभ थाय ए केम बने? बापु! मार्ग आकरो छे; व्यवहारथी निश्चय कदीय न थाय अने निमित्तथी उपादानमां कदीय कार्य न थाय. आवुं ज वस्तु स्वरूप छे.
प्रश्नः– परंतु कोई कोईमां निमित्त प्रत्यक्ष करतुं देखाय छे ने? जुओ, अग्निथी पाणी गरम थाय छे ने?
उत्तरः– भाई! तारी नजर संयोग उपर छे तेथी तेने निमित्त प्रत्यक्ष करतुं देखाय छे; पण एम छे नहि. वस्तुना स्वभावने जुए तो तने जणाय के अग्नि पाणीने अडीय नथी. अडया विना ते पाणीने शुं करे? वळी पाणीना रजकणो स्वयं शीत