Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ अवस्थानो त्याग करीने उष्ण थया छे अने अग्नि तो एमां त्यारे निमित्तमात्र ज छे. निमित्त परमां कांई करे छे एम छे ज नहि. समजाणुं कांई...?

अहीं कहे छे-जेने परम वीतरागीतत्त्व (शुद्ध आत्मद्रव्य) द्रष्टिमां आव्युं छे एवा धर्मीने तेनी परिणतिमां-पर्यायमां विरागता छे. तेने कर्मना उदयना निमित्ते जरी पर्यायमां सुखदुःखनी अशुद्धता वेदाय छे; छतां तेनो ते स्वामी थतो नथी. आ अनुकूळता ठीक छे अने आ प्रतिकूळता अठीक छे एवा रागद्वेषना भावनो तेने अभाव छे. तेने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय नथी ने? तेथी तेने रागादिभावोनो अभाव छे. किंचित् राग तेने होय छे पण तेने ते श्रद्धानमां हेय माने छे, आदरणीय नहि. भोगना भावमां एने सुखबुद्धि के आश्रयबुद्धि कयां छे? (नथी). तेथी तेने, ते भोगनो भाव नवा बंधनुं निमित्त थया विना केवळ ज निर्जरी जतो होवाथी निर्जरा ज थाय छे. जुओ, ‘केवलमेव’ केवळ ज एम टीकामां पाठ छे, मतलब के एकली निर्जरा थाय छे, जरा पण बंध नहि. आथी ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे एम कह्युं छे.

तो शुं भोग निर्जरानो हेतु छे एम मानवुं? समाधानः– भाई! भोग तो राग छे अने राग छे ए तो बंधनुं ज कारण छे. अहीं तो ज्ञानीने जे अंतर्द्रष्टिनुं जोर छे एनो महिमा दर्शाव्यो छे, (भोगनो नहि). अहाहा...! सुखधाम निराकुळ आनंदनुं निधान एवुं पोतानुं स्वरूप ज्यां अनुभवमां आव्युं त्यां ज्ञानीने परमां ने रागमांथी सुखबुद्धि तद्न खलास थई जाय छे. तेने किंचित् रागनुं वेदन होय तोपण तेमां ते निर्मम ज छे. एक दाखलो छे ने? के एक गृहस्थने हंमेशां एकला चुरमानो ज खोराक, ते रोज चुरमुं ज खाय, बीजुं एने माफक आवे नहीं. हवे बन्युं एवुं के एमनो एकनो एक दीकरो गुजरी गयो. तेनो दाह दईने बधा संबंधी घरे पाछा आव्या. त्यारे संबंधीओए ते गृहस्थने कह्युं के-भाई! तमने चुरमा सिवाय कांई माफक नथी, तेथी तमारे चुरमुं ज खावुं जोईए; रोटला अने चुरमु तमारे माटे एक ज छे. हवे आ प्रमाणे ते गृहस्थने संबंधीओए चुरमु ज भोजनमां आप्युं. पण शुं ते खावुं भावे? शुं ते खावामां तेने रुचि होय? (न होय). तेवी ज रीते ज्ञानीने रागना वेदनमां अरुचि छे, जराय रुचि नथी. कमजोरीने लीधे वेदनना काळे ते रागादि वेदाय छे तोपण तेनो स्वाद तेने रुचिकर नथी. तेथी समकितीने, रागादिभाव-भोगनो परिणाम बंधनुं निमित्त थया विना केवळ ज निर्जरतो होवाथी, निर्जर्यो थको, निर्जरा ज थाय छे.

भाई! आमां कांई भोगनुं स्थापन कर्युं छे एम नथी. भोगने स्थापे के भलो जाणे ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं तो एम कहे छे के-ज्ञानीने भोगना भावनुं-रागनुं वेदन तो छे पण तेने भोगनी-रागनी रुचि नथी, द्रष्टि नथी तो ते एक समयनुं