३० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ छे. जीव अने अजीव बे तत्त्वो ज स्वरूपथी भिन्न भिन्न छे तो पछी जीव अजीव-तत्त्वनुं शुं करे? जीव अजीवने कांई करे छे एम छे ज नहि.
प्रश्नः– परंतु जीवतत्त्व आस्रवतत्त्व अने बंधतत्त्वने करे छे एम तो छे ने? उत्तरः– ए जुदी वात छे. ए तो जीवनी पर्यायनी वात छे. आस्रवतत्त्वना परिणाम जीवनी पर्यायमां थाय छे ने! तेथी ते जीव करे छे एम कह्युं. ज्ञानीने पण जे आस्रवभाव छे ते जीवनुं परिणमन छे, परंतु कर्मना निमित्तथी थाय छे माटे तेने पर कह्युं छे. वळी रागमां जीव पोते अटकयो छे तेथी बंधतत्त्व पण जीवनुं छे एम कह्युं छे. बंधथी जुदो पाडी, अबंधतत्त्वमां लई जवा माटे बंधने जीवतत्त्व कह्युं छे. जेम मोक्षतत्त्व छे, संवर-निर्जरा तत्त्व छे तेम आस्रव-बंध पण, भले छे क्षणिक तोपण, तत्त्व छे एम दर्शाव्युं छे. तेमां एक त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा उपादेय छे, बाकी साते तत्त्व क्षणविनाशी आश्रय करवायोग्य नहि होवाथी हेय छे. आवुं सम्यक् श्रद्धान जेने थयुं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे अने रागादिकभावो नहि होवाथी आगामी बंध कर्या विना ज वेदनमां आवता जे ते सुख-दुःखना-भोगना भाव निर्जरी जाय छे अने ते ज यथार्थमां निर्जरा छे. माटे सम्यग्द्रष्टिने परद्रव्य भोगवतां निर्जरा ज थाय छे. जुओ, आ पंडित श्री जयचंदजीए भावार्थ कह्यो छे. पहेलांनी गाथामां ज्ञानीने द्रव्य निर्जरानुं कथन कह्युं हतुं अने आ गाथामां भावनिर्जरा कही छे, इति.
हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-
‘किल’ खरेखर ‘तत् सामर्थ्यं’ ते सामर्थ्य ‘ज्ञानस्य एव’ ज्ञाननुं ज छे ‘वा’ अथवा ‘विरागस्य एव’ विरागनुं ज छे ‘यत्’ के ‘कः अपि’ कोई (सम्यग्द्रष्टि जीव) ‘कर्म–भुज्जानः अपि’ कर्मने भोगवतो छतो ‘कर्मभिः न बध्यते’ कर्मोथी बंधातो नथी!
शुं कहे छे? के सम्यग्द्रष्टि जीव कर्मने भोगवतो होवा छतां कर्मोथी बंधातो नथी! भारे अचरजनी वात! पण एम ज छे. अहाहा...! ज्ञानीने अंतरमां जे शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्माना आश्रये ज्ञान अने वैराग्य प्रगट थयां छे तेनुं कोई एवुं आश्चर्यकारी अद्भुत सामर्थ्य छे के ज्ञानी कर्मने भोगवतो होवा छतां तेमां मोहभावने पामतो नथी अने तेथी जेने नवां कर्म बंधातां नथी. अहीं ज्ञान एटले क्षयोपशम ज्ञाननी वात नथी, अने वैराग्य एटले स्त्री-कुटुंब परिवारने छोडीने वैरागी थई जाय ए वैराग्यनी वात नथी. ज्ञान एटले त्रिकाळी शुद्ध पूर्णानंदनो नाथ प्रभु पूरणस्वरूप जे आत्मा तेनुं ज्ञान अने वैराग्य कहेतां जेमां अशुद्धतानो- रागनो अभाव थयो छे ते वैराग्य. समकितीने आवां ज्ञान-वैराग्यनी आश्चर्यकारी शक्ति प्रगट थई होय छे जेना कारणे ते कर्मने भोगववा छतां कर्मथी बंधातो नथी.