Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७

भाई! तुं अनादिथी दुःखना पंथे पडेलो छुं. राग अने निमित्त मारी चीज छे एम मानीने तुं मिथ्यात्वभावना सेवनमां अनादिथी पडेलो छुं; अने तेथी ८४ लाख योनिने स्पर्श करीने अनंत अनंतवार जन्म-मरण करी-करीने भवसिंधुमां डूबी रह्यो छुं. ते भवसिंधुने पार करवा भगवान! तुं निज चैतन्यसिंधुने जगाड. अहाहा...! नाथ! तुं चैतन्यसिंधु भगवान छो. ‘सुद्ध चेतनासिंधु हमारौ रूप है’ एम समयसार नाटकमां आवे छे ने? त्यां कह्युं छे के-

“कहै विचच्छन पुरुष सदा मैं एक हौं,
अपने रससौं भर्यो आपनी टेक हौं;
मोहकर्म मम नांहि नांहि, भ्रमकूप है,
सुद्ध चेतनासिंधु हमारो रूप है.”

संसारमां जेने विचिक्षण कहे छे ए तो बधा मूर्ख छे. एनी अहीं वात नथी. अहीं तो जेने आत्मानुभव प्रगट थयो छे ते समकिती धर्मीजीव विचिक्षण पुरुष छे एम वात छे. एवो धर्मी विचिक्षण पुरुष एम जाणे छे के-हुं सदाय एक छुं, ज्ञान अने आनंदना रसथी भरेलो छुं. आ रागादिभाव ते हुं नहि, ए तो भ्रमणानो कूवो छे. ते मारा स्वरूपमां कयां छे? नथी. शुद्ध चैतन्यनो दरियो ते मारुं रूप-स्वरूप छे. आम भवसिंधुने पार करवा ज्ञानी पुरुष पोताना स्वरूपने-शुद्ध-चेतनासिंधुने अवलंबे छे.

अहीं कहे छे-ज्यां द्रष्टिमां अने ज्ञानमां शुद्धचेतना मात्र वस्तु जणाई त्यां तेना अनाकुळ स्वाद आगळ, विषयसेवन करवा छतां विषयसेवननुं फळ जे रागरंजित परिणाम तेने ज्ञानी भोगवतो नथी, वेदतो नथी. केम? कारण के तेने ज्ञानवैभव अने विरागतानुं बळ प्रगट थयुं छे. आ बहारनी धूळनी (धन-संपत्तिनी) चमक देखाय ते वैभव नहि; ए तो बधी स्मशानना हाडकांना फोस्फरसनी चमक जेवी चमक छे. अज्ञानीओ तेमां आकर्षाय छे परंतु ज्ञानी पुरुषो तो एनाथी उदासीन रहे छे. ज्ञानीने तो अंदर स्वसंवेदनमां आनंदनो नाथ त्रिकाळी भगवान जणायो ते ज्ञान-वैभव छे. आवा ज्ञानवैभव अने विरागताना बळथी ज्ञानी विषयने सेवतो छतो तेना फळने- रंजित परिणामने पामतो नथी. सूक्ष्म वात छे, भाई!

अज्ञानीओ कहे छे-निमित्तथी आत्मामां कांईक (कार्य) थाय छे एम मानो तो साचुं. जुओ, शास्त्रमां, पण आवे छे के मोहनीय कर्मना निमित्तथी जीवने रागादि थाय छे.

समाधानः– भाई! निमित्तथी-कर्मथी आत्मामां कांई पण थतुं नथी. जीवमां जे कार्य थाय छे ते पोताथी थाय छे. निमित्तथी थाय छे एम जे शास्त्रमां आवे छे