समयसार गाथा-१९७ ] [ प१ रागमां अने विषयोमां मीठाश न होय. माटे विषयोने सेवतो छतां ते असेवक ज छे. हवे कहे छेः-
‘अने मिथ्याद्रष्टि विषयोने नहि सेवतो होवा छतां रागादिभावोना सद्भावने लीधे विषयसेवनना फळनुं स्वामीपणुं होवाथी सेवक ज छे.’
शुं कह्युं? के अज्ञानी भले सामग्रीने सेवे नहि, पण अंतरमां तेने रागनां रस- रुचि पडयां छे. तेने विषयसेवननो अभिप्राय मटयो नथी. तेने सविशेष रागशक्ति अस्तिपणे रहेली छे जे वडे ते रागनो स्वामी थाय छे. आ कारणे अज्ञानी अणसेवतो थको पण सेवक छे. ज्ञानी सेवतो थको असेवक अने अज्ञानी अणसेवतो थको सेवक! पाठ तो आवो छे भाई!
प्रश्नः– तमो पाठना बीजा अर्थ करो छो. भले कर्मने लईने नहि तोपण ज्ञानीने रागनो भाव तो कंईक आवी जाय छे. आगळ (गाथा १९४मां) आवी गयुं छे के ज्ञानी पण कर्मना उदयने-शाता-अशाताने-ओळंगतो नथी अने तेने पर्यायमां सुख-दुःख वेदाय छे. तोपछी तेने असेवक केम कह्यो? सेवे छे छतां असेवक छे एम कहेवुं शुं जूठुं नथी?
उत्तरः– बापु! एम नथी, भाई! धर्मी जीव एने कहीए जेने अंतरमां - आत्मसंवेदनमां अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनुं वेदन थयुं छे. आ व्रत करे ने तप करे ने भक्ति करे माटे ते धर्मी छे एम नथी केमके ए तो बधो राग छे. आ तो सर्व रागना विकल्पथी भिन्न पडीने निर्विकल्प आनंदरसना स्वादने जेणे चाख्यो छे ते धर्मात्मा छे. आवा धर्मी जीवने रागनां रस-रुचि नथी, रागनुं धणीपणुं नथी. आखुंय विश्व तेने पर पदार्थ तरीके भासे छे. तेथी तेमां तेने रस नथी. विश्व छे, किंचित् राग छे पण एमां एने रस नथी, रुचि नथी, स्वामित्व नथी. तेथी कह्युं के -सेवक छतां असेवक; भोक्ता छतां अभोक्ता! गजब वात छे भाई!
अहो! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो धर्म अद्भुत अलौकिक छे! आवी वात बीजे कयांय नथी. अरे! एना संप्रदायवाळाने पण खबर नथी तो बीजानुं तो शुं कहेवुं? पण आ श्री कुंदकुंदाचार्यनी गाथाओ छे अने तेना अर्थ (टीका) महान् समर्थ आचार्य श्री अमृतचंद्रदेवे कर्या छे. तेओ पांचमी गाथामां कहे छे ने के-अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञानना वैभवनो अमने पर्यायमां जन्म थयो छे. आ पांच-पचास लाख रूपिया अने रूपाळुं शरीर इत्यादि तो जडनो-धूळनो वैभव छे, ए कांई निजवैभव नथी. मुनिराज कहे छे- जेम डुंगरमांथी पाणी झरे छे तेम अतीन्द्रिय आनंद-रसथी भरेला त्रणलोकना नाथ भगवान आत्मामांथी अमने पर्यायमां प्रचुर आनंदनो रस झरे छे अने ते अमारो निजवैभव छे. अमारो निजवैभव अतीन्द्रिय आनंदनी महोर-मुद्रावाळो छे. अहाहा...! शुं वैराग्य! शुं उदासीनता!