समयसार गाथा-१९७ ] [ प३ वेपारी नथी कारण के ते वेपारनो अने वेपारना लाभ-नुकशाननो स्वामी नथी; ते तो मात्र नोकर छे, शेठनो कराव्यो बधुं कामकाज करे छे.’ जुओ, दुकाननुं बधुं ज कामकाज नोकर करे तोपण ते वेपारी नथी कारण के ते नफा-नुकशाननो स्वामी नथी. तेथी खरेखर ते वेपारना कार्यनो मालिक-करनारो नथी.
ज्यारे, ‘जे शेठ छे ते वेपार संबंधी कांई कामकाज करतो नथी, घेर बेसी रहे छे तोपण ते वेपारनो अने वेपारना लाभ-नुकशाननो धणी होवाथी ते ज वेपारी छे.’ अहाहा...! दाखलो तो जुओ! वेपारनुं कांई पण काम न करे तोपण शेठ वेपारनो करनारो छे. हवे कहे छे-‘आ द्रष्टांत सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टि पर घटावी लेवुं.’
अहाहा...! शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप भगवान आत्मा छे. तेमां अंतर्मुख थई अनुभव करतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आववो अने आवो हुं आनंदस्वरूप पूर्ण परमात्मा छुं एवी प्रतीति थवी ते सम्यग्दर्शन छे. आवा सम्यग्दर्शन विना जैनधर्म शुं चीज छे ए लोकोने खबर नथी. बापु! सम्यग्दर्शन ए ज धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे अने आत्मानुभवनी स्थिरता-द्रढता थवी ते जैनधर्म छे. आ सिवाय व्रत, तप, दया, दान आदि कांई धर्म छे एम नथी.
भावपाहुडनी गाथा ८३ मां आवे छे के-पूजा, वंदन, वैयावृत्य अने व्रत ए जैनधर्म नथी; ए तो पुण्य छे. जुओ गाथा-त्यां शिष्ये प्रश्न कर्यो के-“धर्मका कया स्वरूप है? उसका स्वरूप कहते हैं कि ‘धर्म’ इस प्रकार है”ः-
गाथार्थः– “जिनशासनमें जिनेन्द्रदेवने इस प्रकार कहा है कि पूजा आदिकमें और व्रतसहित होना है वह तो ‘पुण्य’ ही है तथा मोह क्षोभसे रहित जो आत्माका परिणाम वह ‘धर्म’ है.”
गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के-“लौकिकजन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभ क्रियाओमें और व्रतक्रियासहित है वह जिनधर्म है, परंतु ऐसा नहि है. जिनमतमें जिनभगवानने इस प्रकार कहा है कि-पूजादिकमें और व्रतसहित होना है वह तो पुण्य है. इसका फल स्वर्गादिक भोगोंकी प्राप्ति है.” आ वात अज्ञानीने आकरी लागे छे, पण शुं थाय? अनादिनो मार्ग ज आ छे. छेल्ले त्यां भावार्थमां खुलासो कर्यो छे के- “जो केवल शुभपरिणामहीको धर्म मानकर संतुष्ट है उनको धर्मकी प्राप्ति नहीं है, यह जिनमतका उपदेश है.”
ज्ञानीने अशुभथी बचवा शुभभाव होय छे, अशुभवंचनार्थ शुभ हो; पण छे ते पुण्य, धर्म नहीं. आ सांभळी अज्ञानी राड पाडी ऊठे छे के-तमे अमारां व्रत ने तपनो लोप करी दो छो. पण भाई! तारे व्रत ने तप हतां ज के दि’? अज्ञानीने वळी