सम्यग्द्रष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति–
ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को।। १९८।।
न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः।। १९८।।
हवे प्रथम, सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम गाथामां कहे छेः-
ते मुज स्वभावो छे नहि, हुं एक ज्ञायकभाव छुं. १९८.
गाथार्थः– [कर्मणां] कर्मोना [उदयविपाकः] उदयनो विपाक (फळ) [जिनवरैः] जिनवरोए [विविधः] अनेक प्रकारनो [वर्णितः] वर्णव्यो छे [ते] ते [मम स्वभावाः] मारा स्वभावो [न तु] नथी; [अहम् तु] हुं तो [एकः] एक [ज्ञायकभावः] ज्ञायकभाव छुं.
टीकाः–जे कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला अनेक प्रकारना भावो छे ते मारा स्वभावो नथी; हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं.
भावार्थः–आ प्रमाणे सामान्यपणे समस्त कर्मजन्य भावोने सम्यग्द्रष्टि पर जाणे छे अने पोताने एक ज्ञायकस्वभाव ज जाणे छे.
हवे प्रथम, सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम गाथामां कहे छेः-
‘जे कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला अनेक प्रकारना भावो छे ते मारा स्वभावो नथी;...’