Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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६२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ अहाहा...! आत्मा पोताना स्वभावथी जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. अहीं ‘आ’ शब्द पडयो छे ने? हुं तो ‘आ’... आटलामांथी ‘प्रत्यक्ष अनुभवगोचर’ छुं-एम काढयुं छे. हुं तो आ-आनंदस्वरूप भगवान आत्मा-प्रत्यक्ष अनुभवगम्य अर्थात् स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष जणाय एवो छुं.

अहाहा...! धर्मात्मा एम जाणे छे के-हुं तो आ-प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं. अनादिथी अकृत्रिम अणघडेलो घाट एवो शाश्वत ध्रुव एक चैतन्यबिंबमात्र भगवान छुं एम धर्मी जाणे छे. पोते कोण छे एनी-पोताना घरनी- खबर न मळे अने मांडे आखी दुनियानी! भाई! ए तो जीवन हारी जवानुं छे. अहीं तो कहे छे-हुं टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं-एम ज्ञानी जाणे-अनुभवे छे. छठ्ठी गाथामां आव्युं ने के-

ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव।।

अहाहा...! जाणनारने जाण्यो त्यां जणायुं के-हुं एक शुद्ध ज्ञायकभावमात्र वस्तु छुं.

* गाथा १९८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ प्रमाणे सामान्यपणे समस्त कर्मजन्य भावोने सम्यग्द्रष्टि पर जाणे छे अने पोताने एक ज्ञायकस्वभाव ज जाणे छे.’

भाषा जोई! ‘समस्त कर्मजन्य भावोने’-एम लीधुं छे. कर्मजन्य भाव एटले पुण्य ने पापना भाव; ते भावो स्वभाव नथी तेथी ते भावोने कर्मजन्य कह्या छे; परंतु तेथी ते कर्मथी थया छे एम नथी. विकार थयो छे तो पोताना षट्कारकना परिणमनथी. परंतु ते विकार आत्मजन्य नथी तेथी तेने कर्मजन्य कहेवामां आव्यो छे.

त्यां पंचास्तिकायमां (गाथा ६२मां) अस्तिकाय सिद्ध करवुं छे. तेथी त्यां कह्युं के- विकार-मिथ्यात्व, राग-द्वेष, विषयवासनानो भाव इत्यादि-जे छे ते पर्यायना षट्कारकनुं स्वतंत्र परिणमन छे, तेने परकारकोनी अपेक्षा नथी, तेम ज तेने स्वद्रव्यगुणनी पण अपेक्षा नथी. पर्यायमां एटलुं विकारनुं अस्तित्व छे एम त्यां अस्तिकाय सिद्ध कर्युं छे. पण ज्यारे स्वभाव सिद्ध करवो होय अने स्वभावनुं आलंबन कराववुं होय त्यारे तेनो निषेध करीने कह्युं के-ते भावो मारा स्वभावो नथी, तेओ परना निमित्ते उत्पन्न थयेला छे तेथी परना छे, कर्मजन्य छे. समजाणुं कांई...!

पण आवुं बधुं (अनेक अपेक्षा) याद शी रीते रहे?