ण दु एस मज्झ भावो जाणगभावो हु अहमेक्को।। १९९।।
न त्वेष मम भावो ज्ञायकभावः खल्वहमेकः।। १९९।।
आ छे नहि मुज भाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव छुं. १९९.
[विपाकोदयः] विपाकरूप उदय [एषः भवति] आ छे, [एषः] आ [मम भावः] मारो भाव [न तु] नथी; [अहम्] हुं तो [खलु] निश्चयथी [एकः] एक [ज्ञायकभावः] ज्ञायकभाव छुं.
टीकाः–खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे, मारो स्वभाव नथी; हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं. (आ रीते सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने जाणे छे).
वळी आ ज प्रमाणे ‘राग’ पद बदलीने तेनी जग्याए द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काया, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन अने स्पर्शन-ए शब्दो मूकी सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां (-कहेवां) अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
हवे सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छे-एम कहे छेः-
‘खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे, मारो स्वभाव नथी...’