समयसार गाथा-१९९ ] [ ६प
हवे आटलां आटलां लखाण आवे छतां ‘कर्मथी राग न थाय’ एम कहीए एटले लोकोने आकरुं ज लागे ने? पण भाई! कई अपेक्षाए आ कह्युं छे? विकार थयो छे तो पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी; पण ते स्वभावना आश्रये थतो नथी अने स्वभाव बंधस्वरूप नथी तेथी निमित्तने आश्रये थयेलो विकार निमित्तनो छे एम कह्युं छे. ‘खरेखर’ शब्द छे ने? पाठ छे, जुओ-‘पोग्गलकम्मं रागो’-खरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे अने ते कर्मनो विपाक ते राग छे, पण आत्मानो विपाक ते राग छे एम नथी.
अहाहा...! राग थयो छे तो पोतानी नबळाईने लीधे पोतानी पर्यायमां पोताना षट्कारकना परिणमनथी. परंतु आ निर्जरा अधिकार छे ने? द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयमां राग नथी अने रागथी आत्मा जणातो नथी. ते कारणे रागने पर तरीके कर्मजन्य कहीने काढी नाखवा मागे छे. तेथी कह्युं के राग मारो स्वभाव नथी, शुद्ध चैतन्यनो भाव नथी.
‘हुं तो आ टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं’-एम ज्ञानी जाणे छे. ‘आ’-एटले प्रत्यक्ष अनुभवगोचर स्वसंवेदनमां जणाय एवो हुं त्रिकाळ शाश्वत चैतन्यमात्र आत्मा छुं, आ रागादिभाव ते हुं नथी एम सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने तथा परने (भिन्न) जाणे छे.
जुओ, कोई स्वच्छंदीने एम थाय के-राग कर्मजन्य-पुद्गलजन्य छे; माटे राग हो तो हो, तेथी मने शुं नुकशान छे? तो एना माटे पहेलेथी ए वात सिद्ध करी छे के- भाई! राग-द्वेष विषयवासना आदि तारी पर्यायमां ताराथी थाय छे अने ते तारो ज अपराध छे. (एमां कर्मनो कांई दोष नथी). तथा कोई रागादिने पोतानो स्वभाव मानी रागमां ज संतुष्ट रहे छे, स्वरूपमां जतो नथी तेने कह्युं के-भाई! राग तारो स्वभाव नथी, पण ते परनिमित्ते थतो परभाव होवाथी पुद्गलजन्य भाव छे; स्वरूपमां उद्यमी थयो छे एवो ज्ञानी तेने कर्मजन्य-पुद्गलजन्य भाव जाणे छे केमके ते स्वभाव नथी. गाथा ७प-७६मां ए ज कह्युं छे के-पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो एटले के रागादिभावनो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणाम अर्थात् रागादिभाव ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातु होवाथी व्याप्यरूप कर्म छे. आ प्रमाणे रागने कर्मजन्य कहीने तेनो स्वभाव अने स्वभावनी द्रष्टिमां निषेध कर्यो छे अने स्वरूपनुं आलंबन कराव्युं छे. समजाणुं कांई...? ‘श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक’मां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए बहु सुंदर स्पष्टीकरण कर्युं छे के-
“श्रीगुरु रागादिक छोडाववा इच्छे छे. हवे जे रागादिकने परना मानी स्वच्छंदी बनी निरुद्यमी थाय, तेने तो उपादानकारणनी मुख्यताथी ‘रागादिक आत्माना छे’ एवुं श्रद्धान कराव्युं; तथा जे रागादिकने पोतानो स्वभाव मानी तेना नाशनो उद्यम करतो नथी, तेने निमित्तकारणनी मुख्यताथी ‘रागादिक परभाव छे’ एवुं श्रद्धान कराव्युं.