Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७

आपे आवुं नवुं कयांथी काढयुं? अमे तो कर्मथी ज विकार थाय छे एम सांभळ्‌युं छे. तो कर्मथी विकार न थाय एवुं नवुं आपे कयांथी काढयुं?

भाई! विकार पोतानो स्वभाव नथी, छतां तेने पर्यायमां जीव स्वतंत्रपणे करे छे, तेमां एकेय दोकडो परनो नथी. (जुओ पंचास्तिकाय गाथा ६२).

विकार थवामां प० दोकडा उपादानना ने प० दोकडा निमित्तना राखो तो केम? भाई! एम नथी. विकार थवामां एकेय दोकडो निमित्तनो-परनो नथी. १००% पोताना पोतानामां छे, ने निमित्तना सो ये सो टका निमित्तमां छे. अरे भगवान! विकार तेना स्वकाळे पोताने कारणे पोतामां (पर्यायमां) थयो छे. जुओ, ते जीवनो स्वभाव नथी-एम कहीने जो कोई विकारने पर्यायमां परथी थयेलो मानतो होय ने स्वच्छंद प्रवर्ततो होय तो तेने विकार जीवनो छे एम संतो कहे छे; अने जो कोई जीवनो ज विकार छे एम विकारने स्वभाव मानी तेने छोडतो ज नथी तेने संतो कहे छे-भाई! विकार तारो स्वभाव नथी, ए तो परना निमित्ते थयेलो परनो छे, कर्मजन्य छे.

अहीं कहे छे-राग मारो स्वभाव नथी. भाषा तो जुओ! कहे छे-‘हुं तो आ- प्रत्यक्ष अनुभवगोचर-टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं.’ अहाहा...! आ स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष जणाय छे एवो हुं तो एक शाश्वत ध्रुव चैतन्यबिंब छुं एम ज्ञानी जाणे छे. बापु! समजवा जेवी तो आ वात छे. भाई! आ वस्तुस्थिति छे. अरे! आवां टाणां मळ्‌यां ने तने नवराश नहि! आ भव पछी तारे कयां जवुं छे, बापा? अनंत-अनंतकाळ हजु रहेवुं तो छे. अहीं (मनुष्यमां) केटलो काळ रहेवानो? पांच-पचास वर्ष; पण आत्मा तो अनंतकाळ रहेवानो छे. जो द्रष्टि विपरीत रही तो अनंतकाळ विपरीत द्रष्टिमां-चार गतिमां-रहेशे, अनंतकाळ अनंत दुःखमां रहेशे.

अहाहा...! रागादि मारा स्वभावो नथी, हुं तो एक चिन्मात्र ज्ञायकभावमात्र वस्तु छुं एम विशेषपणे सम्यग्द्रष्टि स्वने अने परने जाणे छे.

हवे कहे छे-‘आ प्रमाणे “राग” पद बदलीने तेनी जग्याए “द्वेष” लेवो.’ जेम ‘पोग्गलकम्मं रागो’ मूळ पाठमां छे तेम ‘पोग्गलकम्मं द्वेषो’–एम लेवुं. भाई! आ तो सत्यनां उद्घाटन छे. धर्मीनी द्रष्टि शुद्ध स्वभाव उपर छे तेथी ते एम कहे छे के द्वेष मारो स्वभाव नथी, ते कर्मनुं कार्य छे, अर्थात् पुद्गलकर्मनो द्वेष छे. बहु झीणी वात बापु! द्वेष छे तो निरपेक्ष, केमके कर्मना निमित्तपणानी अपेक्षा विना ते थाय छे; तोपण अहीं तेने सापेक्ष कहीने ते स्वभाव नथी एवी द्रष्टि करावी छे. अहाहा...! द्रष्टिवंत पुरुषो-धर्मी जीवो द्वेष कर्मनुं कार्य छे एम जाणीने तेनी निर्जरा करी नाखे छे.

जीवनो स्वभाव तो त्रिकाळ आनंद अने वीतरागता छे. तेथी तेनो जे पाक