Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा-२०० ] [ ८३ अनेकान्त छे. (एकलो बाह्य त्याग ए मिथ्या एकांत छे). रागना त्यागथी अने वस्तुत्वना ग्रहणथी वस्तुत्वना निर्मळ परिणाम अर्थात् वीतरागी परिणति नीपजे छे अने तेने विस्तारतां निर्जरा थाय छे अर्थात् अशुद्धता टळे छे ने कर्म खरे छे. बाकी अज्ञानीनां व्रत ने तप तो बधां थोथेथोथां छे केमके तेने संसार परिभ्रमणनुं कारण मिथ्यात्व ऊभुं ज छे.

अहीं कहे छे-ज्ञानी स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्याग वडे नीपजवा योग्य पोताना वस्तुत्वने विस्तारतो कर्मना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने छोडे छे. ल्यो, आ आव्युं के कर्मना विपाकथी विकार थाय छे! भाई! कर्मनुं तो निमित्तपणुं छे, बाकी पोताना (अशुद्ध) उपादानथी विकार-अशुद्धता पोतानामां पोताथी थाय छे, अने ज्ञानी तेने हेय जाणे छे. जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते भावने पण ज्ञानी हेय- छोडवालायक जाणे छे. आकरी वात, बापा! पण जुओने! अंदर छे के नहि? के ‘कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने (ज्ञानी) छोडे छे.’ अर्थात् धर्मी बधाय शुभाशुभ विकल्पने छोडे छे. अरे! लोकोने नवराश कयां छे? आखो दि’ बिचारा संसारनी होळीमां सळगता होय, वेपार-धंधो अने बायडी-छोकरां साचववामांथी ज ऊंचा न आवता होय त्यां आ कयां जुए? कोईवार भक्ति ने उपवास करे ने जात्राए जाय, पण एनाथी तो मंदराग होय तो पुण्य थाय पण धर्म नहि; अने ए वडे धर्म थाय एम माने एटले मिथ्यात्व ज पुष्ट थाय. समजाणुं कांई...?

आवो मार्ग कयांथी काढयो एम कोईने थाय, पण भाई! आ तो त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली वात कुंदकुंदाचार्ये कही छे. महाविदेहमां देवाधिदेव सर्वज्ञ परमेश्वर सीमंधर भगवान वर्तमानमां अरिहंतपदे विराजे छे. त्यां आचार्य कुंदकुंद संवत् ४९ मां सदेहे गया हता अने आठ दिवस त्यां रह्या हता. त्यांथी पाछा भरतमां आवीने आ समयसार आदि शास्त्रोनी रचना करी छे. भाई! आ शास्त्रो तो भगवाननी वाणीनो सार छे. आचार्य कुंदकुंद महा पवित्र दिगंबर संत हता. जेमना अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनो सागर हिलोळे चढयो हतो. अहाहा...! जेम दरियामां भरती आवे तेम आचार्यनी परिणतिमां आनंदनी भरती आवेली छे. अहीं टीकामां ‘वस्तुत्वने विस्तारतो’ एम शब्द छे ने? ते आवी अलौकिक मुनिदशानी स्थिति सूचवे छे.

जुओ, जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते भाव पण कर्मना उदयनो विपाक छे एम ज्ञानी जाणे छे अने एम जाणतो ते समस्त परभावोने छोडे छे. ‘तेथी ते (सम्यग्द्रष्टि) नियमथी ज्ञानवैराग्यसंपन्न होय छे.’ पहेलां ज्ञान-वैराग्यनी बे गाथाओ (१९प, १९६) आवी गई छे एनो आ सरवाळो लीधो छे. शुद्ध चैतन्यबिंब