८४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ पूर्णानंदस्वरूप प्रभु आत्माने जाणवो-अनुभववो ते ज्ञान अने रागनो त्याग करवो ते वैराग्य छे. त्रिकाळ अस्तिनुं ज्ञान अने राग प्रति वैराग्य-उदासीनता-त्याग-आ रीते ज्ञान ने वैराग्य बेय शक्ति धर्मीने होय छे-एम सिद्ध थयुं. शुं कह्युं? के पोतानो जे ध्रुव ज्ञायकस्वभावी, वीतरागस्वभावी आत्मा तेने धर्मी ग्रहे छे अने पोताना वस्तुत्वने-ज्ञानानंदस्वभावने विस्तारे छे अने रागनो अभाव करे छे. आ रीते ज्ञानी ज्ञानवैराग्यशक्तिथी संपन्न होय छे. १०० मी गाथामां रागनो कर्ता नथी, निमित्तेय नथी एम आव्युं हतुं अने आ २०० मी गाथामां ज्ञानी ज्ञानवैराग्यशक्ति संपन्न होय छे एम आव्युं.
‘ज्यारे पोताने तो ज्ञायकभावस्वरूप सुखमय जाणे अने कर्मना उदयथी थयेला भावोने आकुळतारूप दुःखमय जाणे त्यारे ज्ञानरूप रहेवुं अने परभावोथी विरागता -ए बन्ने अवश्य होय ज छे.’
जोयुं? बे गुण लीधा छे. भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभावरूप अने अतीन्द्रिय आनंदमय-सुखमय छे. ज्ञानी पोताने आवो जाणे छे, अनुभवे छे, अने कर्मना उदयथी थयेला भावोने आकुळतारूप दुःखमय जाणे छे. पंडित श्री जयचंदजीए आ टूंकुं करीने कह्युं. आ पंचमहाव्रत आदि जे विकल्पो थाय तेने ज्ञानी दुःखमय-धगधगती भट्ठी जेवा आतापकारी जाणे छे, गजब वात छे प्रभु! छहढालामां कह्युं छे ने के-
आ जीवे मुनिव्रत अनंतवार धार्यां अने पाळ्यां. पण ए तो राग-आस्रव हतो, दुःखमय भाव हतो. एमां सुख कयां हतुं ते प्राप्त थाय? कह्युं ने के-‘सुख लेस न पायो’-अर्थात् दुःख ज पायो. भाई! कर्मना उदयजनित भावो दुःखमय ज होय छे अने ज्ञानी तेने दुःखमय ज जाणे छे.
तेथी कहे छे के-ज्ञानीने, ज्ञानरूप रहेवुं ने परभावोथी विरागता-ए बन्ने साथे अवश्य होय ज छे. बापु! आ तो धीरानां काम, अजब-गजबनां भाई! निजतत्त्व - आत्मतत्त्व सदा ज्ञानमय अने सुखमय स्वभावरूप छे. तेने जाणतो-अनुभवतो ज्ञानी रागना अभाव वडे वीतरागताने विस्तारे छे. ल्यो, आ धर्म अने आवो धर्मी! परंतु रागने (व्यवहारने) करे अने रागने विस्तारे ते धर्मी नथी. गजब वात छे भाई! लोकोने तो बहारमां-पुण्यभावरूप क्रियाकांडमां धर्म मनाववो छे. पण बापु! आम ने आम जिंदगी एळे जशे, कांईक दया, दानना-पुण्यना भाव कर्या हशे तो