समयसार गाथा-२०० ] [ ८प पांच-पचास लाख-करोडनी धूळ (संपत्ति) मळशे; पण बापु! ए तो धूळनी धूळ धूळमां छे. एमां कयां आत्मा छे? वा आत्मामां ए कयां छे? आ रूपाळो देह छे तेनी पण राख थशे, अने धूळ (संपत्ति) धूळमां रहेशे. अहीं कहे छे-ज्ञानी कर्मना उदयथी उत्पन्न थयेला भावोने दुःखमय-झेर जेवा हेय जाणे छे अने तेने निज सुखमय स्वभावना आश्रये छोडी दे छे.
अहाहा...! ज्ञानमय रहेवुं एटले ज्ञानस्वभावी नित्यानंदस्वरूप भगवान आत्मामां रहेवुं-टकवुं अने विरागता एटले रागथी खसवुं-एम बन्नेय ज्ञानीने एकसाथे होय ज छे. ‘आ वात प्रगट अनुभवगोचर छे. ए (ज्ञान-वैराग्य) ज सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे.’ व्यवहारना रागने करवुं ए सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न वा लक्षण नथी पण अंतर्द्रष्टि वडे स्वरूपमां सावधान रहेवुं अने रागथी खसवुं ते सम्यग्द्रष्टिनुं लक्षण छे. आवो मार्ग छे भाई!
त्यारे कोई कहे छे-जरा सहेलुं करो, वंदना, जात्रा इत्यादि पण करवुं. एम कहो. जुओ, पूजामां पण आवे छे के-
अरे भाई! अज्ञानी एकाद भव नरक-पशुमां न जाय तोय तेथी एने शुं लाभ छे? अज्ञान अने मिथ्यात्व रहे तो पछीय पण ते तिर्यंचादिमां जशे ज. सम्मेदशिखरनी वंदनानो भाव पण शुभराग ज छे जेने ज्ञानी दुःखमय जाणे छे. सम्मेदशिखरनी लाख वंदना करे तोय ते शुभराग ज छे, धर्म नथी, अने तेने उपादेयग्रहण करवायोग्य माने त्यांसुधी ते मिथ्याद्रष्टि ज छे, जैन नहि.
हवे ‘जे जीव परद्रव्यमां आसक्त-रागी छे अने सम्यग्द्रष्टिपणानुं अभिमान करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे ज नहि; वृथा अभिमान करे छे’-एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः-
अहाहा...! मुनिवरने कयां कोईनीय पडी छे? तेओ तो कहे छे-भाई! सत्य तो आ छे; एम के तुं माने गमे तेम पण सत्य तो आ छे. शुं? तो कहे छे-
‘अयं अहं स्वयम् सम्यग्द्रष्टिः, मे जातु बन्धः न स्यात्’ आ हुं पोते सम्यग्द्रष्टि छुं, मने कदी बंध थतो नथी ‘इति’ एम मानीने ‘उत्तान–उत्पुलक–वदनाः’ जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित थयुं छे एवा ‘रागिणः’ रागी जीवो....
शुं कहे छे? अज्ञानी जीव बहारनी क्रियाथी गर्विष्ठ थई मानवा लागे छे के-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, धर्मी छुं; मने कदी बंध थतो नथी केमके सम्यग्द्रष्टिने भोगनी