८६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ निर्जरा थई जाय छे. माटे हुं निर्जरावंत छुं. आ राग आवे छे ए तो चारित्रनो दोष छे, अमने तो अराग परिणाम होवाथी जे राग आवे छे ते झरी जाय छे. अहा! पोताने रागनी अंदर रुचि पडेली छे छतां शास्त्रोमां आम कह्युं छे एम मानी जे गर्व करे छे तेने कहे छे-भाई! तुं रागने पोतानो माने छे ते मिथ्यात्वनो दोष छे. भगवान केवळी सर्वज्ञ परमेश्वरने शुं कहेवुं छे ते समजवानी दरकार करता नथी तेनो मनुष्यभव ढोर समान छे. आकरी वात छे प्रभु! पण सत्य वात छे.
पोताने राग छे, रागनो प्रेम छे, छतां हुं धर्मी छुं एम अज्ञानी माने छे, तेने कहे छे-भाई! जेने शुभभावनी रुचि-प्रेम छे, जे शुभभावने भलो ने कर्तव्य माने छे ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. तेने सम्यग्दर्शन केवुं? आ, ‘ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे’-एम गाथाओ आवीने? तेना उपरनो आ कळश छे. अरे भाई! भोग निर्जरानो हेतु केम होय? ए तो ज्ञानीए ज्ञानस्वभावने आदर्यो छे, तेने निज आनंदस्वरूपनो आश्रय वर्ते छे तेथी तेने जे भोगनो राग आवे छे तेनो ते स्वामी नहि थतो होवाथी नवो बंध कर्या विना ते झरी जाय छे-एम त्यां वात छे. शुं भोग कांई निर्जरानो हेतु होय? न होय. पण शास्त्रमां कह्युं छे एम जाणी कोई भोगनो अभिप्राय राखे छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. आवी वात बापा! बहु झीणी.
भाई! आ मनुष्यभव मळ्यो छे पण भगवान केवळी शुं कहे छे ते जो समजवामां न आव्युं तो ते निष्फळ छे. मोटो साधु थयो तोय शुं? ए ज कहे छे-जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित थयुं छे एवा रागी जीवो-परद्रव्य प्रत्ये रागद्वेषमोहभाववाळा जीवो-‘अपि’ भले ‘आचरन्तु’ महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा ‘समितिपरतां आलंबन्तां’ समितिनी उत्कृष्टतानुं आलंबन करो ‘अद्य अपि’ तोपण ‘ते पापाः’ तेओ पापी ज छे.
शुं कह्युं? पाठमां छे, जुओ-के ‘रागिणोऽप्याचरन्तु’–रागी जीवो अहिंसा-परनी दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह-एम पांच महाव्रतनुं आचरण करो तो करो अने जोईने चालवुं, निर्दोष आहार लेवो, हित-मित बोलवुं इत्यादि उत्कृष्टपणे समितिनुं भले आलंबन करो, तोपण तेओ पापी ज छे, मिथ्याद्रष्टि ज छे. केम? केमके तेमने रागमां सुखबुद्धि-उपादेयबुद्धि छे अने तेमणे चैतन्यमूर्ति-वीतरागमूर्ति प्रभु आत्मानो आश्रय लीधो नथी. तेमने रागमां हेयबुद्धि अने निज चैतन्यस्वभावमां उपादेयबुद्धि थई नथी तेथी तेओ पापी ज छे. आकरी वात बापा! पण त्रणेकाळ वीतरागनो मार्ग आ ज छे.
भगवान आत्मा सदाय रागरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप वीतरागस्वरूप ज छे. आवो चिदानंदघन प्रभु आत्मा जेणे उपादेय-आदरणीय कर्यो छे तेनी परिणतिमां निराकुळ