Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा-२०० ] [ ८७ आनंदमय वीतरागता आवे ज छे. परंतु आत्मानो आश्रय छोडीने रागने आदरणीय मानीने कोई महाव्रतादि पाळे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. रागमां सुखबुद्धि छे तेवा जीवो, भले अमे समकिती छीए एम नाम धरावे अने बहारमां साधुपणानुं आचरण करे, आहार-विहार आदि क्रियाओमां जतनाथी प्रवर्ते, प्राण जाय तोपण उद्देशिक आहार ग्रहण न करे तोपण तेओ पापी ज छे, मिथ्याद्रष्टि ज छे-एम अहीं कहे छे. जुओ, छे के नहि कलशमां? ‘आलंबन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापाः’ छे स्पष्ट? अहा! जेने शुभरागनो आदर छे, शुभराग कर्तव्य छे एम जेणे मान्युं छे ते महाव्रतादि गमे ते आचरण करे तोपण ते पापी ज छे. कलशमां ‘पापाः’ एम शब्द छे. छे के नहि? भाई! मिथ्यात्वनुं पाप महापाप छे. लोकोने खबर नथी, पण व्यवहारनो राग कर्तव्य छे, धर्म छे एम जेणे मान्युं छे ते मिथ्याद्रष्टि-पापी ज छे.

प्रश्नः– परंतु ते पाप (-अशुभभाव) तो कांई करतो नथी? उत्तरः– भले ते पाप-अशुभभावनो-हिंसादिनो करनारो नथी तोपण तेने आचार्य श्री अमृतचंद्रदेवे पापी कह्यो छे. बहु गंभीर वात छे भाई! प्रचुर निराकुळ आनंद अने अकषायी शांतिनी परिणतिमां रहेनारा धर्मना स्थंभ एवा आचार्यदेवनुं आ कथन छे. मूळ गाथा आचार्य कुंदकुंदनी छे अने १००० वर्ष पछी तेनी आ टीका आचार्य अमृतचंद्रनी छे. अहो! वीतरागी मुनिवरो-जंगलमां वसनारा मुनिवरोनो आ पोकार छे; के रागने कर्तव्य ने धर्म जाणी कोई अहिंसादि महाव्रतनुं आचरण करे तो करो, पण ते पापी ज छे, केमके तेने मिथ्यादर्शनना अभावरूप सम्यग्दर्शन नथी वा आत्मानुभव नथी. मिथ्यादर्शन ए ज मूळ पाप छे.

प्रश्नः– पण चरणानुयोगमां महाव्रतादिनुं विधान तो छे? उत्तरः– हा छे; पण चारे अनुयोगनो सार वीतरागता ज छे, राग नहि. पंचास्तिकायनी गाथा १७२ मां छे के चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता छे. वीतरागना मार्गमां सर्वत्र वीतरागतानुं ज पोषण छे. चरणानुयोगमां पण रागनुं पोषण कर्युं नथी. तेमां रागने जणाव्यो छे, पण पोषण तो वीतरागतानुं ज कर्युं छे. चरणानुयोगमां साधकने वीतरागपरिणति साथे यथासंभव केवो राग होय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे, तेनुं पोषण नहि; पुष्टि तो एक वीतरागतानी ज करेली छे अने ए ज वीतरागनो मार्ग छे. समजाणुं कांई? शुभभावना प्रेमवाळाने कळश बहु आकरो पडे पण शुं थाय? वस्तुस्थिति ज आवी छे.

‘णमो लोह सव्व आइरियाणं’-एम पाठ आवे छे ने? पाठमां जेमने नमस्कार कर्या छे एवा अमृतचंद्रस्वामी एक आचार्य भगवंत छे के जेमने रागनी रुचि छूटी गई छे अने आनंदना नाथनी रुचिमां अंतररमणता अति पुष्टपणे जामी गई छे.