समयसार गाथा-२०० ] [ ८९ जीव रागनी रुचिनी आडमां रागथी भिन्न अंदर आखो चैतन्यथी भरेलो भगवान आत्मा छे तेने जाणतो नथी. रागने भलो जाणे ते रागथी केम खसे? न ज खसे. ज्यारे ज्ञानीने आत्मानी रुचि अने रागनी अरुचि छे. ते रागने उपाधि जाणे छे अने आत्म-रुचिना बळे तेने दूर करे छे. अहा! ज्ञानी अने अज्ञानीना अभिप्रायमां आसमान-जमीननो फरक छे! अज्ञानी तो उपाधिभावने पोतानो जाणी लाभदायक माने छे अने तेथी ज अहीं कह्युं छे के-अज्ञानी पंचमहाव्रतादिनुं आचरण करे-चोख्खां हों- तोपण पापी ज छे.
भाई! वीतरागनी आज्ञा तो वीतरागता प्रगट करवानी छे; रागने प्रगट करवानी अने तेने आदरणीय मानवानी वीतरागनी आज्ञा नथी. राग करतां करतां सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थशे ए तो लसण खातां खातां कस्तूरीनो ओडकार आवशे एना जेवी (मिथ्या) वात छे. अरे! अज्ञानीओए सदाय नित्य शरणरूप एवा भगवान आत्माने छोडी दईने निराधार ने अशरण एवा रागने पोतानो मानी ग्रहण कर्यो छे! तेथी अहीं संतो अति स्पष्ट कहे छे के-पंचमहाव्रतादिने पाळनारा होवा छतां एने ज कर्तव्य अने धर्म जाणनारा तेओ पापी ज छे, मिथ्याद्रष्टि छे. भारे आकरी वात! पण दिगंबर संतोने कोनी पडी छे? तेमणे तो मार्ग जेवो छे तेवो स्पष्ट जाहेर कर्यो छे. जुओने! त्रण कषायनो जेमने अभाव थयो छे एवा ते मुनिवरो किंचित् राग तो छे पण तेने तेओ आदरणीय मानता नथी.
अज्ञानी अहिंसादि पांच महाव्रत पाळे, ईर्या, भाषा, एषणा आदि पांच समिति पाळे-चोख्खां हों-तोपण ते पापी छे. आकरी वात भगवान! केम पापी छे? तो कहे छे- ‘यतः आत्मा–अनात्मा–अवगम–विरहात्’ कारण के ते आत्मा ने अनात्माना ज्ञानथी रहित छे. ज्ञायकस्वरूपी भगवान आत्मा छे अने राग छे ते आस्रव-अनात्मा छे. हवे जेणे रागने-व्रतना परिणामने-भलो मान्यो छे तेने आत्मा अने अनात्मानी खबर नथी. तत्त्वार्थसूत्रमां व्रत ने अव्रत-बन्ने परिणामने आस्रव कह्या छे. मोक्षमार्ग- प्रकाशकमां पण आवे छे के-जो तमे अशुभभावने पाप मानो छो अने शुभभावने धर्म मानो छो तो पुण्य कयां गयुं? एम के हिंसादिना भाव पाप छे, अने दया आदिना भाव धर्म छे एम मानो तो पुण्य कोने कहेवुं? मतलब के दया-अहिंसा आदि व्रतना परिणाम पुण्य छे, आस्रव छे. आवी वात लोकोने आकरी पडे छे, पण शुं थाय? वस्तुस्थिति ज एवी छे. भाई! रागनो रागी जीव महाव्रतादि आचरे तो पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. गजबनो आकरो कळश छे!
दया पाळे, सत्य बोले, अचौर्य पाळे, जीवनभरनुं ब्रह्मचर्य पाळे, बहारनो एक धागा सरखोय परिग्रह राखे नहि अने छतां पापी कहेवाय? हा, आचार्य अमृतचंद्र कळशमां