९० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ एम कहे छे के ते पापी छे केमके ते रागनो रागी छे अने तेथी मूळ परिग्रह जे मिथ्यात्व ते ऊभो छे. रत्नकरंड श्रावकाचार (श्लोक ३३ मां) मां आवे छे के-
गृहस्थाश्रममां रहेवा छतां जेने रागनो आदर नथी अने आत्मानो आदर थयो छे ते समकिती मोक्षमार्गी छे. ज्यारे अज्ञानी मुनिलिंग (द्रव्यलिंग) धारवा छतां रागनो आदर करे छे तो ते मोही-मिथ्याद्रष्टि छे. जेना अभिप्रायमां राग आदरणीय छे तेने वर्तमानमां भले मंद राग होय तोपण ते मोही-मिथ्याद्रष्टि छे अने चोथे गुणस्थाने भले त्रण कषाययुक्त रागनी प्रवृत्ति होय तोपण तेने राग आदरणीय नहि होवाथी ते मोक्षमार्गमां छे. आवी वात छे. अज्ञानी आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी शुभाचरण करवा छतां सम्यक्त्वथी रहित एवा पापी ज छे. छे ने के- ‘आत्मानात्मावगमविरहात् सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः’
‘परद्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी- एम माने छे तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत-समिति पाळे तोपण स्वपरनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे.’
जोयुं? जेने रागमां रुचि छे, परद्रव्य प्रत्येना आश्रयनो प्रेम छे, तेने अनंतानुबंधीनो राग थतो होय छे. ते भले माने के-हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध नथी- तोपण खरेखर ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. आवो जीव भले अहिंसादि पांच महाव्रत पाळे के जोईने चालवुं, विचारीने बोलवुं, निर्दोष आहार लेवो-इत्यादि पाळे तोपण ते पापी ज छे केमके तेने स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी. ज्ञानानंदस्वभावी चैतन्यमात्र वस्तु आत्मा ते हुं स्व अने आ रागादि भाव माराथी भिन्न पर छे एवुं भेदविज्ञान नहि होवाथी बहारथी व्रत-समिति पाळे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि ज छे, पापी ज छे.
आ श्री जयचंदजी पंडित आचार्यदेवनी वातनो विशेष खुलासो करे छे के-अंतरमां रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यनुं भान थयुं नथी अने रागनी रुचिमां रहेला छे ते जीवो भले व्रतादिरूप शुभाचरण करे तोपण तेओ पापी ज छे केमके तेमने स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी. धर्मने नामे लोको तो व्रत, ने तप ने सामायिक ने भक्ति इत्यादि क्रियाओ करवा मंडी पडया छे पण बापु! धर्म कोई जुदी चीज छे; धर्म तो वीतरागतामय छे, रागमय नहि. पण एने कयां आवो विचार छे? ए तो