समयसार गाथा-२०० ] [ ९१ बस क्रियाओमां लवलीन छे; पण भाई! ए वडे धर्म नहि थाय, एनाथी संसार नहि टळे.
वळी ‘पोताने बंध नथी थतो एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो? कारण के ज्यांसुधी यथाख्यात चारित्र न थाय त्यांसुधी चारित्रमोहना रागथी बंध तो थाय ज छे अने ज्यांसुधी राग रहे त्यांसुधी सम्यग्द्रष्टि तो पोतानी निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे.’
अहा! मने रागेय नथी ने बंधनेय नथी एम मानी जे स्वच्छंदे प्रवर्ते छे ए तो समकिती छे ज नहि. समकितीने तो ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागतारूप यथाख्यात चारित्र- जेवुं स्वरूप पूर्ण वीतराग छे तेवुं प्रसिद्ध वीतराग चारित्र-न थाय त्यां सुधी राग रहे ज छे अने बंध पण थाय ज छे. वळी तेने ज्यां सुधी राग रहे छे त्यां सुधी एनी निंदा- गर्हा करतो ज रहे छे. राग थाय तो कांई वांधो नहि एम समकितीने न होय. अरे! तेने शुभभाव थाय एनी पण ते निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे. जोके निंदा-गर्हा छे तो शुभभाव, पण ते समकितीने होय ज छे केमके तेने रागमां हेयबुद्धि छे. मोक्ष अधिकारमां निंदा-गर्हा ए शुभभाव छे अने ते विषनो घडो छे एम कह्युं छे. पण समकितीने राग प्रति निंदा-गर्हानो भाव आवे ज छे. हवे कहे छे-
‘ज्ञान थवा मात्रथी बंधथी छूटातुं नथी, ज्ञान थया पछी तेमां ज लीनतारूप- शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध कपाय छे. माटे राग होवा छतां, बंध थतो नथी-एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्तनार जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.’
शुं कह्युं आ? के ज्ञान थया पछी तेमां ज-शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ज लीनतारूप- शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध कपाय छे. जोयुं? ज्ञानानंदस्वरूपमां लीनतारूप शुद्धोपयोग छे अने ते शुद्धोपयोग चारित्र छे. पण महाव्रतना परिणाम कांई चारित्र नथी; चारित्र तो शुद्धोपयोगरूप परिणाम छे. अज्ञानीनी वाते-वाते फेर छे. अज्ञानी तो महाव्रतना- रागना परिणामने चारित्र माने छे. पण अहीं तो त्रण वात कही-
१. ज्ञानानंदस्वभावी निज आत्मस्वरूपमां लीनतारूप शुद्धोपयोग छे. २. ते शुद्धोपयोगरूप चारित्र छे. अने ३. आवा शुद्धोपयोगरूप चारित्रथी बंध कपाय छे, परंतु महाव्रतना परिणाम के नग्नपणुं चारित्र नथी अने ते वडे बंध कपाय छे एम पण नथी. अहो! जयचंदजीए केवो सरस खुलासो कर्यो छे!
कहे छे-ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानुं स्वसंवेदन प्रगट थया पछी तेमां ज लीनतारूप शुद्धोपयोग प्रगट करे ते चारित्र छे. स्वरूपमां चरे-रमे ते चारित्र छे.