Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा-२०० ] [ ९३

२. ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ के अशुभ सर्व क्रियाओने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहे छे. जुओ, छे अंदर के नहि? (छे).

हवे कहे छे-‘वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां, व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित् पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी.’

जोयुं? परमार्थे शुभक्रियाने पाप कहेवामां आवे छे तोपण व्यवहारनये तेने अशुभ-पापना परिणाम छोडावीने शुभपरिणाममां प्रवर्ताववा माटे पुण्य पण कहे छे. परंतु तेने पुण्य कहे छे, धर्म नहि. अहीं व्यवहारथी पाप अने पुण्य-ए बे वच्चेनो भेद- तफावत दर्शाव्यो छे.

ज्यां सुधी दया, दान, व्रत आदिना शुभ परिणामथी धर्म थाय छे एवी मिथ्या मान्यता छे त्यां सुधी ते शुभक्रियाना परिणाम निश्चयथी पाप ज कह्या छे; परंतु व्यवहारे, अशुभने छोडीने शुभमां जोडाय छे ते शुभने पुण्य पण कहे छे. पुण्य हों, धर्म नहि. अरे भाई! आ टाणां आव्यां छे ने जो आ टाणे आनो निर्णय नहि करे तो के दि’ करीश? (पछी अनंतकाळे पण अवसर नहि आवे). माटे हमणां ज तत्त्वाभ्यास वडे निर्णय कर.

श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां सातमा अधिकारमां सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्याद्रष्टिनुं कथन करतां कह्युं छे के -जो आ अवसरमां तत्त्वाभ्यासना संस्कार पडया हशे तो कदाचित् कोई पापनी विचित्रताना वशे अहींथी नरकमां के तिर्यंचमां-ढोरमां जाय तोपण त्यां ते संस्कार उगशे अने तेने देवादिना निमित्त विना पण समकित थशे. अहाहा...! ‘रागथी रहित हुं शुद्ध चैतन्यमय वस्तु आत्मा छुं’-एवा अंतरमां संस्कार द्रढ पडया हशे तो ते अन्यत्र ए संस्कारना बळे समकितने प्राप्त थशे. वळी त्यां कह्युं छे के-

“जुओ, तत्त्वविचारनो महिमा! तत्त्वविचार रहित देवादिकनी प्रतीति करे, घणां शास्त्रोनो अभ्यास करे तथा व्रत-तपश्चरणादि करे छतां तेने तो सम्यक्त्व थवानो अधिकार नथी अने तत्त्व विचारवाळो ए विना पण सम्यक्त्वनो अधिकारी थाय छे.”

लोको तो व्रत ने तप कर्यां एटले थई गयो धर्म एम माने छे. पण एमां तो धूळेय धर्म नथी सांभळने! ए तो बधो राग छे अने रागथी भिन्न तारुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे. आवो तत्त्वविचार अने निर्णय थया विना व्रतादि आचरण करे तोय जीव मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे. अने आवा तत्त्वविचार सहित जेने अंतरमां तत्त्व-निर्णयना द्रढ संस्कार पडया छे ते समकितनो अधिकारी थाय छे. कदाचित् नरक-