९४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ तिर्यंचमां जाय तोपण त्यां ते संस्कारना बळे समकित पामशे. लोकोने आ आकरुं पडे छे, पण शुं थाय?
त्यारे केटलाक कहे छे-तमे व्यवहारथी निश्चय थाय एम मानता नथी. पण भाई! आगम ज आम कहे छे; शास्त्र ज आम कहे छे के व्यवहारथी (रागथी) निश्चय (धर्म) थाय एम माननारा मिथ्याद्रष्टि छे. जुओ, लख्युं छे ने के-तत्त्वविचार रहित तपश्चरणादि करे तोय तेने सम्यक्त्व थवानो अधिकार नथी अने तत्त्वविचारवाळो ए विना पण सम्यक्त्वनो अधिकारी थाय छे. वळी त्यां ज आगळ जतां लख्युं छे के-
“वळी कोई जीवने तत्त्वविचार थवा पहेलां कोई कारण पामीने देवादिकनी प्रतीति थाय, वा व्रत-तप अंगीकार थाय अने पछी ते तत्त्वविचार करे, परंतु सम्यक्त्वनो अधिकारी तत्त्वविचार थतां ज थाय छे.” जुओ, व्रत-तप अंगीकार करे माटे समकित थाय एम नहि, पण तत्त्वविचार थतां ते समकितनो अधिकारी थाय छे. आवी चोकखी वात छे, पण अरेरे! जगतने कयां पडी छे? आ जीवन पुरुं थतां हुं कयां जईश? मारुं शुं थशे? आवो एने विचार ज कयां छे? ए तो बिचारो स्त्री-पुत्र-परिवार अने बहारनी पांच-पचास लाखनी धूळमां-संपत्तिमां सलवाई पडयो छे. कदाचित् सांभळवा जाय तोपण एथी शुं? तत्त्वविचार - तत्त्वमंथन कर्या विना अने तत्त्वनिर्णय पाम्या विना बधुं थोथेथोथां छे.
अहीं कहे छे-व्यवहारनयनी मुख्यताथी व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाववा शुभक्रियाने कोई प्रकारे पुण्य पण कहे छे. व्रत, तप, भक्ति, जात्रा, उपवास आदि व्यवहारथी पुण्य कहेवाय छे. तथापि निश्चयथी तो ए सर्व शुभक्रिया, जो शुभक्रियाने पोतानी माने छे तो, पाप ज छे. आवी वात छे.
‘वळी कोई पूछे छे के-परद्रव्यमां राग रहे त्यांसुधी जीवने मिथ्याद्रष्टि कह्यो ते वातमां अमे समज्या नहि. अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदयथी रागादिभाव तो होय छे, तेमने सम्यक्त्व केम छे?’
शुं कह्युं आ? के आप शुभभाव करनारने मिथ्याद्रष्टि कहो छो ए वात अमे समज्या नहि; केमके अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने पण चारित्रमोहना उदयथी शुभभाव थतो होय छे. क्षायिक समकितीने पण रागना परिणाम तो थाय छे. तो पछी तेमने समकित केम छे? तेमने राग छे छतां समकित केम टकी रहे छे?
तेनुं समाधानः– ‘अहीं मिथ्यात्वसहित अनंतानुबंधी राग प्रधानपणे कह्यो छे. जेने एवो राग होय छे अर्थात् जेने परद्रव्यमां तथा परद्रव्यथी थता भावोमां