समयसार गाथा-२०० ] [ ९७
प्रश्नः– आप तो व्यवहारनो लोप करो छो; शुं व्यवहार छे ज नहि? उत्तरः– कोण कहे छे के व्यवहार छे ज नहि? व्रत, तप, भक्ति, दान इत्यादि बाह्य व्यवहार ज्ञानीने पण होय छे, पण ते मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्षनुं कारण छे एम ज्ञानी मानता नथी. जो कोई तेने मोक्षमार्ग जाणी आचरण करे छे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे एम वात छे. जुओने! अहीं शुं कहे छे आ? के दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि भावो शुभराग छे अने ते वडे पोतानो मोक्ष थवो जे माने छे ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. आ तो शास्त्र-आगम आम पोकारी कहे छे, परंतु अज्ञानी विपरीत ज माने छे.
‘आ रीते ज्यांसुधी जीव परद्रव्यथी ज भलुंबुरुं मानी रागद्वेष करे छे त्यां सुधी ते सम्यग्द्रष्टि नथी.’
जुओ, शुं कीधुं आ? के अज्ञानी परद्रव्यथी ज भलुंबुरुं मानी रागद्वेष करे छे. परनी दया पाळवी ते भलुं छे अने परनी हिंसा करवी ते बुरुं छे-एम परद्रव्यथी भलुंबुरुं मानी रागद्वेष करे छे ते समकिती नथी. (परमार्थे शुभ अने अशुभभाव ते पण पर छे.) भाई! आ तो श्री जयचंदजीए लख्युं छे तेनुं अहीं स्पष्टीकरण चाले छे. शरीरनी उपवासादि क्रियाथी अने शुभभावथी धर्म थाय छे अने अशुभभावथी ज बंध थाय छे एम अज्ञानी विपरीत माने छे. आवुं विपरीत ज्यांसुधी ते माने छे त्यां सुधी ते समकिती नथी. केवो सरस भावार्थ लख्यो छे!
‘सम्यग्द्रष्टि जीव तो ज्यां सुधी पोताने चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहे छे त्यां सुधी ते रागादिक विषे तथा रागादिकनी प्रेरणाथी जे परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रियामां ते प्रवर्ते छे ते प्रवृत्तिओ विषे एम माने छे के-आ कर्मनुं जोर छे; तेनाथी निवृत्त थये ज मारुं भलुं छे.’
जुओ, समकितीने अस्थिरतानो राग होय छे तथा ते रागप्रेरित शुभाशुभ बाह्य क्रियाओमां पण ते प्रवर्ततो होय छे पण ए सर्व ते कर्मनुं जोर अर्थात् पुरुषार्थनी नबळाई-अधुराश छे एम जाणे छे. वळी पुरुषार्थ वधारीने एनाथी निवृत्त थये ज पोतानुं भलुं छे एम सम्यक्पणे ते माने छे, अने क्रमे पुरुषार्थनी द्रढता करीने रागथी निवृत्त थाय छे.
‘ते तेमने रोगवत् जाणे छे.’ ज्यां सुधी पूर्ण वीतराग न थाय त्यां सुधी समकिती-धर्मीने व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादिनो शुभ भाव आवे छे खरो पण तेने ते रोग समान जाणे छे. तेने ते बंधनुं कारण जाणे छे, धर्मनुं नहि. भाई! आ तो २०० वर्ष पहेलां श्री जयचंदजीए लख्युं छे. मूळ पाठ ‘रागिणोऽप्याचरन्तु’ इत्यादि