१०६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ अकर्तास्वभावनो निर्णय थशे अने त्यारे-अहो! हुं तो ज्ञाताद्रष्टा छुं, कोई पण रागनी क्रियानो (अने जडनी क्रियानो) हुं कर्ता नथी एम यथार्थ प्रतिभासशे. शुं कह्युं? समकितीने व्यवहार-राग होय छे खरो पण तेनो हुं कर्ता नथी एवी तेनी द्रष्टि थई जाय छे. अहो! कोई अचिंत्य महिमा छे ए सम्यक् द्रष्टिनो!
प्रश्नः– त्यारे कोई वळी कहे छे भगवाने (सर्वज्ञदेवे) दीठुं हशे ते दि’ थाशे; आपणे शुं पुरुषार्थ करी शकीए? भगवाने दीठुं हशे ए ज थशे, एमां आपणो पुरुषार्थ शुं काम लागे?
समाधानः– भाई! तारी आ वात तत्त्वद्रष्टिथी विपरीत छे. हा, भगवान सर्वज्ञे जेम दीठुं एम ज थशे-ए तो एम ज छे. पण सर्वज्ञे दीठुं-ए वात सर्वज्ञनी सत्तानो स्वीकार कर्या पछी आवे ने! अरे भाई! सर्वज्ञ छे अने सर्वज्ञे जेम दीठुं तेम थाय छे एम एम निर्णय कर्यो छे अर्थात् जेना श्रुतज्ञानमां सर्वज्ञनो निर्णय थयो छे ए तो एकलो ज्ञाता-द्रष्टा थई जाय छे. तेने वळी समकितनी अने भवनी शंका केवी? तेने भव होई शके ज नहि. एकाद बे भव होय तेनी अहीं गणतरी नथी-तुं पुरुषार्थहीनतानी वातो करे छे पण सर्वज्ञनी सत्तानो पोतानी पर्यायमां स्वीकार करवो, निश्चय करवो ए ज अचिंत्य अपूर्व पुरुषार्थ छे अने ते अंतर्मुख थतां प्रगट थाय छे. समजाणुं कांई...?
सर्वज्ञनो अने क्रमबद्धनो निर्णय करवामां तो पांचे समवाय एकसाथे होय छे. जे समये समकितनी पर्याय थई ते थवानी हती ते स्वकाळे थई ते नियत छे. जे समकितनी पर्याय प्रगट थई ते स्वभावसन्मुखताना पुरुषार्थ वडे ज थई छे ते पुरुषार्थ छे.
वळी समकितनी पर्याय निजस्वभावमां एकाग्रता वडे थई एमां स्वभाव पण आवी जाय छे.
समकितनी पर्याय क्रमबद्ध पोताना काळे जे थवानी हती ते ज थई ए भवितव्यता छे.
समकितनी पर्यायना काळे स्वयं कर्मना उपशमादि थयां ते निमित्त पण आवी गयुं. आम पांचे समवाय एकसाथे रहेलां छे. एम नथी के स्वभावना पुरुषार्थ विना कोईने समकित थई जाय छे वा भगवाने समकित थतुं जोयुं छे. भाई! तुं जे कहे छे ए तो एकांत नियतिवाद छे अने ए तो मिथ्यादर्शन छे. अहीं तो क्रमबद्धना निर्णयमां पांचे समवाय एकसाथे होय छे एम वात छे. समजाणुं कांई...?
अहा! भगवान! तुं कोण छो? सिद्ध समान-सर्वज्ञ जेवो आत्मा छुं. सर्वज्ञ केवा के? सिद्ध केवा छे? तेओ तो जे थाय तेने मात्र जाणे ज छे अने तेओ जेम