११८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७
वस्तु आत्मा बापु! बहु सूक्ष्म अगम्य छे. ते राग करवाथी केम जणाय? एम तो अनंतकाळमां भगवान! तें हजारो राणीओ छोडीने, मुनिव्रत धारी नग्न दिगंबर थई जंगलमां रह्यो, पण एक समयमात्र आत्मामां न गयो, शुद्ध चैतन्यतत्त्वनो अनुभव न कर्यो, तेथी अंदर मिथ्यात्वनो त्याग न थयो. भाई! मिथ्यात्वनो त्याग त्याग छे, बाकी बाह्य ग्रहण-त्याग तो आत्मामां कयां छे? छे ज नहि.
शुं कह्युं? आत्मामां एक त्याग-उपादानशून्यत्व शक्ति छे. ते वडे ते बाह्यचीजना त्याग-ग्रहणथी रहित छे. भाई! बाह्य चीज ज्यां ग्रहण ज नथी करी तो तेनो त्याग शुं? तेणे पोतानी पर्यायमां कमजोरीथी रागने ग्रह्यो छे, अने स्वरूपनुं ग्रहण करतां तेनो त्याग सहज थई जाय छे. एणे रागनो त्याग कर्यो एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. गाथा ३४ (टीका)मां आव्युं ने के-आत्मा रागना त्यागनो कर्ता छे ते पण नाममात्र कथन छे; केमके भगवान आत्मा जे ज्ञानमय छे ते रागमय थयो ज नथी ने. पोते ज्ञानमय स्वरूपमां ठरी गयो त्यारे राग उत्पन्न ज थयो नहि, तो रागनो त्याग कर्यो एम नाममात्र कहेवामां आवे छे परमार्थे रागना त्यागनो कर्ता आत्मा छे ज नहि. संयोगथी जुए तेने भासे के में स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-संपत्ति अने वस्त्र आदि छोडयां, पण एवी मान्यता तो अज्ञान छे भाई! केमके ए बधां तें के दि’ ग्रह्यां हतां ते छोडयां एम माने छे?
अहीं कहे छे-जे आत्माने जाणतो नथी ते अनात्माने-रागादिने पण जाणतो नथी. वळी कहे छे-‘ए रीते जे आत्मा अने अनात्माने नथी जाणतो ते जीव अने अजीवने नथी जाणतो.’
जे पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्ताने जाणतो नथी ते एनाथी भिन्न रागादि अनात्माने जाणतो नथी, भाई! आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग अनात्मा छे, अजीव छे. जीव-अजीव अधिकारमां तेने अजीव कह्यो छे, जीव नहि. माटे व्यवहाररत्नत्रय वडे मने लाभ छे वा तेनाथी निश्चय प्रगटे छे एम जे माने छे ते अनात्माने-अजीवने पोतानो माने छे. तेथी तेने आत्मा-अनात्मा बन्नेनुं ज्ञान नथी; ते जीव-अजीव बन्नेने जाणतो नथी. आवी सूक्ष्म पडे तेवी वात छे, पण भाई! आ भगवाननी दिव्यध्वनिमां कहेली वात छे.
कहे छे-भगवान सच्चिदानंदमय प्रभु आत्मा अनंत गुणरत्नोथी भरेलो भंडार छे. तेनी सन्मुख जेनी द्रष्टि नथी, तेनो जेने आश्रय नथी अने तेमां नथी एवा रागनो (व्यवहारनो) जेने आश्रय छे तेने आत्मा ने अनात्मानुं ज्ञान नथी अने ते बन्नेनुं ज्ञान नथी तो जीव-अजीवनुं पण ज्ञान नथी.