Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 2032 of 4199

 

समयसार गाथा २०१-२०२ ] [ ११९

हा, पण आप व्यवहाररत्नत्रयने अजीव केम कहो छो? समाधानः– भाई! व्यवहाररत्नत्रयनो मुनिराजने जे विकल्प छे ते राग छे अने राग छे ते अजीव छे. जो ते जीव होय तो जीवमांथी ते नीकळे ज केम? परंतु ते तो स्वरूपमां स्थिर थतां नीकळी जाय छे. माटे ते जीवना स्वरूपभूत नहि होवाथी जीव नथी, अजीव छे. अजीव अधिकारमां पण तेने अजीव कह्यो छे. माटे ते व्यवहारनुं-अजीवनुं जेने यथार्थ ज्ञान नथी तेने तेनाथी पृथक् जीवनुं पण यथार्थ ज्ञान नथी, अने जीव- अजीवने नहि जाणतो ते समकिती केम होय? ए ज कहे छे के-

‘अने जे जीव-अजीवने नथी जाणतो ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी. माटे रागी (जीव) ज्ञानना अभावने लीधे सम्यग्द्रष्टि होतो नथी.’

जे व्यवहाररत्नत्रयना रागने पोतानो जाणे छे ते जीव-अजीवने जाणतो नथी अने तेथी ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी, पछी श्रावक अने मुनिपणानी तो वात ज कयां रही? बापु! पांचमुं गुणस्थान श्रावकनुं अने छठ्ठुं मुनिराजनुं तो कोई अलौकिक चीज छे भाई!

रागी जीवने रागनो राग छे, रागनी रुचि छे अने तेथी तेने ज्ञाननो-ज्ञानमय भावनो अभाव छे; अर्थात् तेने आत्मा-अनात्माना ज्ञाननो, सम्यग्ज्ञाननो अभाव छे. आ कारणे आत्मा-अनात्माना ज्ञानथी रहित ते मिथ्याद्रष्टि छे, पण ते सम्यग्द्रष्टि नथी. अहाहा...! जेने व्यवहारनी रुचि छे ते रागी जीव सम्यग्द्रष्टि नथी. आवी आकरी वात छे, पण भाई! आ सत्य वात छे.

* गाथा २०१–२०२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अहीं “राग” शब्दथी अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहेवामां आव्या छे. त्यां “ अज्ञानमय” कहेवाथी मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीथी थयेला रागादिक समजवा, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहना उदयनो राग न लेवो;’...

जुओ, भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन प्रभु ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप छे. तेमां (पर्यायमां) जे विकल्प ऊठे छे ते-चाहे तो दया, दान, व्रत, भक्ति के तपनो विकल्प हो, - तोपण ते राग छे, विकार छे, विभाव छे. तेने जे पोतानो मानी तेनाथी लाभ माने छे ते अज्ञानी छे, मिथ्याद्रष्टि छे. एवा मिथ्याद्रष्टिना रागद्वेषमोहने अहीं (गाथामां) ‘राग’ गणवामां आव्यो छे. भगवान! आवा अज्ञानमय रागने करी करीने ८४ ना अवतारमां तुं अनंतकाळ रखडी-रझळी मर्यो छे. छहढालामां आवे छे ने के-

“मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायौ;
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ.”