समयसार गाथा २०१-२०२ ] [ १२९ समजीश? अने तो तारी शी गति थशे? आ-भवरूपी पडदो बंध थशे त्यारे तुं कयां जईश प्रभु? आ देह कांई तारी चीज नथी; ए तो जोतजोतामां छूटी जशे. अने तुं तो अविनाशी तत्त्व छो, तारो कांई नाश थाय एम नथी. तो तुं कयां रहीश प्रभु? अहा! जेनी द्रष्टि रागनी रुचिथी खसती नथी ते मिथ्याद्रष्टि जीव नरक-निगोदादिमां रझळतो अनंतकाळ मिथ्यात्वना पदमां रहेशे. शुं थाय? (रागनी रुचिनुं फळ ज एवुं छे.)
प्रश्नः– शुभभावने ज्ञानी हेय माने छे एम आप कहो छो, पण ते शुभभाव करे छे तो खरो?
समाधानः– भाई! पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे ज्ञानीने दया, दान, भक्ति आदिनो शुभभाव आवे छे-होय छे, पण तेने हुं करुं, ते मारुं कर्तव्य छे-एवो अभिप्राय एने कयां छे? शुभभाव होवो ए जुदी वात छे अने शुभभाव भलो छे एम जाणी करवो-आचरवो ए जुदी वात छे. ज्ञानी शुभभाव करतो-आचरतो ज नथी. ए तो कह्युं ने के एने रागनुं निश्चये स्वामित्व ज नथी, माटे एने लेशमात्र राग नथी.
अज्ञानीए रागने ज भलो मान्यो छे अने तेनाथी ज पोतानो मोक्ष मान्यो छे. ‘आ रीते पोताना अने परना परमार्थस्वरूपने नहि जाणतो होवाथी जीव-अजीवना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी.’
जुओ, भगवान आत्मानुं परमार्थस्वरूप ज्ञानानंदमय परम सुखधाम छे; ज्यारे रागनुं स्वरूप विकार अने दुःख छे. हवे जो रागने भलो जाण्यो तो ते रागने-परने जाणतो नथी अने रागरहित पोताना आत्माने पण जाणतो नथी. आ रीते पोताने अने परने नहि जाणतो ते जीव-अजीवना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी. टीकामां पण आ लीधुं छे. अहो! आ तो भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवेली वात छे. भगवाने जे कह्युं ते अहीं कुंदकुंदाचार्ये जाहेर कर्युं छे. श्री कुंदकुंदाचार्य महाविदेहमां भगवान (सीमंधरस्वामी) पासे गया हता अने आठ दिवस त्यां रह्या हता. त्यांथी आवीने आ समयसार आदि शास्त्रो रच्यां छे. तेओ आ पोकारीने कहे छे के-
अज्ञानी पोताना अने परना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी अने तेथी ते जीव- अजीवना परमार्थस्वरूपने जाणतो नथी. ‘अने ज्यां जीव अने अजीव-बे पदार्थोने ज जाणतो नथी त्यां सम्यग्द्रष्टि केवो?’ अहा! हजी ज्यां स्व-परने ओळखतो ज नथी त्यां स्व-परनुं श्रद्धान केवुं? अने श्रद्धानना अभावे ते सम्यग्द्रष्टि केवो? हजी चोथा गुणस्थाननां ज ठेकाणां नथी त्यां सम्यग्द्रष्टि केवो?