१३० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७
‘माटे रागी जीव सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि.’ अर्थात् रागना रागवाळो, रागनो रागी एवो जीव सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि. जुओ, रागवाळो सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि- एम नहि, परंतु रागनो जे रागी छे ते सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि. न्याय समजाय छे? आ तो न्यायनो-लोजीकनो मार्ग छे. अहीं तो न्यायथी वातने सिद्ध करे छे, कंई कचडी- मचडीने नहि. छतां दुनियाने न रुचे एटले आ शुं पागल जेवी वात करे छे?-एम कहे, पण पागलो धर्मीने पागल कहे एमां शुं आश्चर्य छे? परमात्मप्रकाशमां आवे छे के दुनियाना लोको-पागलो धर्मात्माने पागल माने छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेे, जे काव्य द्वारा आचार्यदेव अनादिथी रागादिकने पोतानुं पद जाणी सूतेलां रागी प्राणीओने उपदेश करे छेः-
श्री गुरु संसारी भव्य जीवोने संबोधे छे केः-
‘अन्धाः’ हे अंध प्राणीओ! अंध केम कह्या? के पोतानी चीज जे त्रिकाळ शुद्ध ज्ञानानंदमय निर्मळानंदनो नाथ प्रभु अंदर पडयो छे तेने देखता नथी तेथी अंध कह्या. शरीर, धन, लक्ष्मी इत्यादि बहारनी चीजमां उन्मत्त थयेला-मूर्च्छाई गयेला प्राणीओ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माने देखता नथी, भाळता नथी तेथी तेओ अंध छे एम कहेवुं छे. तेथी कहे छे-
हे अंध प्राणीओ! ‘आसंसारात्’ अनादि संसारथी मांडीने ‘प्रतिपदम्’ पर्याये पर्याये ‘अमी रागी जीवाः’ आ रागी जीवो ‘नित्यमत्ताः’ सदाय मत्त वर्तता थका ‘यस्मिन् सुप्ताः’ जे पदमां सूता छे-ऊंघे छे ‘तत्’ ते पद अर्थात् स्थान ‘अपदम् अपदम्’ अपद छे, अपद छे.
शुं कह्युं? के अनादि संसारथी जीव पर्यायमां घेलो बन्यो छे. जे पर्याय मळी ते पर्याय ज मारुं स्वरूप छे एम उन्मत्त-पागल थईने वर्ते छे. अहा! हुं देव छुं, हुं मनुष्य छुं, हुं नारकी छुं, हुं तिर्यंच छुं, हुं शेठ छुं, हुं दरिद्री छुं, हुं पंडित छुं, हुं मूर्ख छुं, इत्यादिपणे पर्याये पर्याये पोताने माने छे अने पर्यायमां ज अहंबुद्धि धारे छे; परंतु पोताना त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यमात्र आत्मस्वरूपमां द्रष्टि करतो नथी. स्वरूपमां द्रष्टि करे तो न्याल थई जाय पण द्रष्टि करतो नथी तेथी तो अंध कहीने आचार्यदेव संबोधे छे.
वाह! एककोर गाथा ७२ मां ‘भगवान आत्मा’ एम ‘भगवान’ कहीने बोलावे अने अहीं ‘अंध’ कहीने संबोधे! आ वळी केवुं?