Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा २०१-२०२ ] [ १३३ केमके तेणे चैतन्यमात्रपणुं धारी राख्युं छे. आचार्य कहे छे निजरसनी अतिशयता वडे जे स्थिर छे एवुं शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु ज्यां छे ते आत्मा तारुं स्वपद छे; तेमां तुं निवास कर.

अहाहा...! आत्मा निजरसनी अतिशयताथी भरेलो छे. एना चैतन्यरसमां आनंदरस, ज्ञानरस, शांतरस, वीतरागतारस, स्वच्छतारस, प्रभुतारस इत्यादि आवा अनंतगुणना रस एकपणे भर्या छे. अहो! आत्मामां निजरसनो अतिशय एटले विशेषता छे. एटले शुं? एटले के आत्माने छोडीने आवो निजरस-चैतन्यरस बीजे कय ांय (पुण्य-पाप आदिमां) छे नहि. गजब वात छे प्रभु! आचार्यदेवे शब्दे शब्दे भेदज्ञाननुं अमृत वहाव्युं छे.

कोईने वळी थाय के वेपार-धंधामांथी नीकळीने आवुं जाणवुं एना करतां व्रत, तप, भक्ति, दान इत्यादि करीए तो?

अरे भाई! एमां (व्रतादिमां) शुं छे? ए तो शुभभाव-पुण्यभाव छे अने ते अपद छे, अस्थान छे. वळी एना फळमां प्राप्त शरीर, धन-संपत्ति, राजपद, देवपद आदि सर्व अपद छे, दुःखनां स्थान छे. समजाणुं कांई...? दुःखनां निमित्त छे तेथी दुःखनां स्थान छे एम उपचारथी कहेवाय छे.

बापु! आ पांचमहाव्रतना विकल्प पण अपद छे, अस्थान छे. तेमां रहेवा योग्य ते स्थान नथी. तारुं रहेवानुं स्थान तो प्रभु! ज्यां शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु छे ते आत्मा छे. भाई! दया, दान, व्रत आदि परिणाम तो राग छे; एनाथी तारी चीज तो भिन्न छे. चैतन्यरसथी भरेली तारी चीजने तो ए (व्रतादिना विकल्प) अडताय नथी. एवी तारी चीज अंदर निर्लेप पडी छे. अहाहा...! एमां एकला आनंदनो सागर उछळी रह्यो छे; एमां आव ने प्रभु! अहो! संतोनी-मुनिवरोनी करुणा तो जुओ!

आत्मा ‘स्वरस–भरतः’ नाम निज शक्तिना रसथी भरेलो छे. अहाहा...! अनंत-गुणरसना पिंड प्रभु आत्मामां चैतन्यरस, आनंदरस, भर्यो पडयो छे. अनंत अस्तित्वनो आनंद, वस्तुत्वनो आनंद, जीवत्वनो आनंद, ज्ञाननो आनंद, दर्शननो आनंद, शांतिनो आनंद-एम अनंतगुणना आनंदना रसथी प्रभु आत्मा भर्यो पडयो छे; अने ते स्थायीभावपणाने प्राप्त छे. शुं कह्युं? के आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, स्त्री- पुत्र-परिवार अने पुण्य-पापना भाव ए सर्व तो नाशवान छे, पण भगवान आत्मा निजरसनी अतिशयता वडे स्थिर-अविनाशी छे, अंदर त्रिकाळ स्थायी रहेवावाळो छे, कायम रहेवावाळो छे. अहो! बहु सरस श्लोक आवी गयो छे!