Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा २०१-२०२ ] [ १३९

तो अमारे करवुं शुं?
समाधानः– ए तो कह्युं ने के-
‘सद्दव्वादो हु सग्गइ हाइ’–स्वद्रव्य प्रत्येना वलण

अने आश्रयथी सुगति कहेतां मुक्ति थाय छे. भाई! आ ज मार्ग छे, बीजो कोई मार्ग छे नहि. अंदर निर्मळानंदनो नाथ चैतन्यमूर्ति रागथी रहित निर्विकारी प्रभु बिराजे छे तेमां रहेवुं अने तेमां ठरी जवुं; बस आ एक ज करवा योग्य छे. समजाणुं कांई...?

प्रभु! तुं अंदर आत्मा छो के नहि? अहा... हा... हा! तुं अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप अमृतथी भरेलो एकलो अमृतनो सागर छो; ज्यारे परद्रव्यना वलणथी उत्पन्न आ इन्द्रियोनां सुख तो दुःखना-झेरना प्याला छे. भगवान आत्माथी विरुद्ध जे शुभ विकल्प ऊठे छे ते झेर छे भाई! अने एमां आ ठीक छे एवो हरखनो भाव पण झेर छे प्रभु! अरे! तुं एमां नचिंत थईने सूतो छे? भगवान! ए तारुं रहेवानुं स्थान नथी; ए तो अपद छे. माटे जाग नाथ! जाग. तारुं पद तो अंदर शुद्ध चैतन्यधातुमय छे; त्यां जा, तेमां निवास कर. अहो! संतो निस्पृह करुणा करीने जगाडे छे.

कहे छे-रागमां एकाकार थईने सूतो छो पण ते तारुं पद नथी प्रभु! तारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे. अहा... हा... हा...! एक ज्ञायकस्वभावथी भरेलो ध्रुव नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा शुद्ध चैतन्यधातुमय छे अने ते तारुं पद छे. आम शुभाशुभरागमां-अपदमां रखडवा जा’ छो एना करतां एमां जा ने! त्यां वस ने! त्यां ज ठरी जा ने. ल्यो, आ करवानुं छे.

हा, पण जिनमंदिर बंधाववां, स्वाध्याय मंदिर बनाववां, प्रभावना करवी इत्यादि तो करवुं के नहि?

समाधानः– भाई! शुं तुं मंदिरादि बंधावी शके छे? धूळेय बंधावतो नथी सांभळने. पर द्रव्यनुं कार्य आत्मा करी शकतो ज नथी. मात्र त्यां राग करे छे अने ते पुण्यभाव छे. आवो पुण्यभाव ज्ञानीने पण आवे छे-होय छे, पण छे ते अपद. ज्ञानी पण तेने अपद एटले अस्थानरूप दुःखदायक ज जाणे छे. समजाणुं कांई...? देव-गुरु- शास्त्रनी श्रद्धानो राग, प्रभावना आदिनो राग समकितीने साधकदशामां अवश्य होय छे पण ते अपद छे; एकमात्र प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप शुद्ध चैतन्यमय परमात्मा पोते ज स्वपद छे. आवी वात छे.

अहा! कहे छे-भगवान! तारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे. ‘चैतन्यधातुवाळुं’ -एमेय नहि, शुद्ध चैतन्यधातुमय छे. एटले शुं? एटले के कर्म शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि बहारमां अन्यद्रव्यनी भेळसेळ विनानी तारी चीज शुद्ध छे;