थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण।। २०३।।
स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन।। २०३।।
हवे पूछे छे के (हे गुरुदेव!) ते पद कयुं छे? (ते तमे बतावो). ते प्रश्ननो उत्तर कहे छेः-
स्थिर, नियत, एक ज भाव जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ. २०३.
गाथार्थः– [आत्मनि] आत्मामां [अपदानि] अपदभूत [द्रव्यभावान्] द्रव्य- भावोने [मुक्त्वा] छोडीने [नियतम्] निश्चित, [स्थिरम्] स्थिर, [एकम्] एक [इमं] आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) [भावम्] भावने- [स्वभावेन उपलभ्यमानं] के जे (आत्माना) स्वभावरूपे अनुभवाय छे तेने- [तथा] (हे भव्य!) जेवो छे तेवो [गृहाण] ग्रहण कर. (ते तारुं पद छे.)
टीकाः– खरेखर आ भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये (-द्रव्यभावरूप घणा भावो मध्ये), जे अतत्स्वभावे अनुभवाता (अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे नहि परंतु परस्वभावरूपे अनुभवाता), अनियत अवस्थावाळा, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे, ते बधाय पोते अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे; अने जे तत्स्वभावे (अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे) अनुभवातो, नियत अवस्थावाळो, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) छे, ते एक ज पोते स्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे. तेथी समस्त अस्थायी भावोने छोडी, जे स्थायीभावरूप छे एवुं परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं आ ज्ञान एक ज आस्वादवायोग्य छे.
भावार्थः– पूर्वे वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो कह्या हता ते बधाय, आत्मामां