समयसार गाथा-२०३ ] [ १४३
अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः।। १३९।।
स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्।
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।। १४०।।
अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे. आत्मा स्थायी छे (-सदा विद्यमान छे) अने ते बधा भावो अस्थायी छे (-नित्य टकता नथी), तेथी तेओ आत्मानुं स्थान- रहेठाण-थई शकता नथी अर्थात् तेओ आत्मानुं पद नथी. जे आ स्वसंवेदनरूप ज्ञान छे ते नियत छे, एक छे, नित्य छे, अव्यभिचारी छे. आत्मा स्थायी छे अने आ ज्ञान पण स्थायी भाव छे तेथी ते आत्मानुं पद छे. ते एक ज ज्ञानीओ वडे आस्वाद लेवा योग्य छे.
श्लोकार्थः– [तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं] ते एक ज पद आस्वादवायोग्य छे
[विपदाम् अपदं] के जे विपत्तिओनुं अपद छे (अर्थात् जेमां आपदाओ स्थान पामी शक्ती नथी) अने [यत्पुरः] जेनी आगळ [अन्यानि पदानि] अन्य (सर्व) पदो [अपदानि एव भासन्ते] अपद ज भासे छे.
भावार्थः– एक ज्ञान ज आत्मानुं पद छे. तेमां कोई पण आपदा प्रवेशी शकती नथी अने तेनी आगळ अन्य सर्व पदो अपदस्वरूप भासे छे (कारण के तेओ आकुळतामय छे-आपत्तिरूप छे). १३९.
वळी कहे छे के आत्मा ज्ञाननो अनुभव करे छे त्यारे आम करे छेः- श्लोकार्थः– [एक–ज्ञायकभाव–निर्भर–महास्वादं समासादयन्] एक ज्ञायकभावथी भरेला महास्वादने लेतो, [ए रीते ज्ञानमां ज एकाग्र थतां बीजो स्वाद आवतो नथी माटे) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः] द्वंद्वमय स्वादने लेवा असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानना भेदोनो स्वाद लेवाने असमर्थ). [आत्म– अनुभव–अनुभाव–विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्] आत्माना अनुभवना-स्वादना प्रभावने आधीन थयो होवाथी निज वस्तुवृत्तिने (आत्मानी शुद्धपरिणतिने)