१४४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ जाणतो-आस्वादतो (अर्थात् आत्माना अद्वितीय स्वादना अनुभवनमांथी बहार नहि आवतो) [एषः आत्मा] आ आत्मा [विशेष–उदयं भ्रश्यत्] ज्ञानना विशेषोना उदयने गौण करतो, [सामान्यं कलयन् किल] सामान्यमात्र ज्ञानने अभ्यासतो, [सकलं ज्ञानं] सकळ ज्ञानने [एकताम् नयति] एकपणामां लावे छे-एकरूपे प्राप्त करे छे.
भावार्थः– आ एक स्वरूपज्ञानना रसीला स्वाद आगळ अन्य रस फिक्का छे. वळी स्वरूपज्ञानने अनुभवतां सर्व भेदभावो मटी जाय छे. ज्ञानना विशेषो ज्ञेयना निमित्ते थाय छे. ज्यारे ज्ञानसामान्यनो स्वाद लेवामां आवे त्यारे ज्ञानना सर्व भेदो पण गौण थई जाय छे, एक ज्ञान ज ज्ञेयरूप थाय छे.
अहीं प्रश्न थाय छे के छद्मस्थने पूर्णरूप केवळज्ञाननो स्वाद कई रीते आवे? आ प्रश्ननो उत्तर पहेलां शुद्धनयनुं कथन करतां देवाई गयो छे के शुद्धनय आत्मानुं शुद्ध पूर्ण स्वरूप जणावतो होवाथी शुद्धनय द्वारा पूर्णरूप केवळज्ञाननो परोक्ष स्वाद आवे छे. १४०.
हवे पूछे छे के-हे गुरुदेव! ते पद कयुं छे? एम के अहीं आवो, अहीं आवो- एम आप कहो छो तो ते पद कयुं छे? अहा! ते अमने बतावो. आम शिष्यना प्रश्न प्रति उत्तर कहे छेः-
‘खरेखर आ भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये जे अतत्स्वभावे अनुभवाता अनियत अवस्थावाळा, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे, ते बधाय पोते अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे;-’
शुं कहे छे? ‘खरेखर आ भगवान आत्मामां’-छे टीकामां? संस्कृतमां पाठ छे- ‘इह खलु भगवत्यात्मनि’–त्यां खलु एटले ‘खरेखर’ अर्थात् निश्चयथी अने ‘इह’ एटले ‘आ’ ‘आ’ एटले आ प्रत्यक्ष चैतन्यमूर्ति आत्मा-तेमां. जुओ, अहीं आत्माने भगवान आत्मा कह्यो छे; छे? त्यारे कोई वळी कहे छे-
हा, पण अत्यारे कयां आत्मा भगवान छे? समाधानः– अरे भाई! सांभळने बापा! तने खबर नथी भाई! पण निश्चयथी अत्यारे ज तुं भगवान छो. जो तुं-आत्मा निश्चये भगवान न होय तो पर्यायमां भगवान थईश कयांथी? शुं कीधुं? वस्तुस्वरूपे आत्मा सदा भगवानस्वरूप