Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१४६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ (चोख्खां) महाव्रत पण कयां छे? जे महाव्रतना परिणामे नवमी ग्रैवेयक गयो हतो ए महाव्रत अत्यारे छे कयां? (नथी)

प्रश्नः– पंचमकाळना छेडा सुधी साधु रहेवाना छे एम शास्त्रमां आवे छे ने? उत्तरः– श्री मोक्षमार्गप्रकाशकमां खुलासो आवे छे के-आ काळमां हंसनो सद्भाव कह्यो छे, पण हंस न देखाय तेथी कांई अन्यपक्षीने (कागडाने) हंस न मनाय. तेम आ काळमां मुनिनो सद्भाव कह्यो छे अने ते (भरतक्षेत्रमां) बीजे कयांक हशे, पण तमे रहो छो त्यां मुनि देखाता नथी तेथी अन्यने कांई मुनि न मनाय. भाई! एक दिगंबर मत सिवाय अन्य बधाय गृहीत मिथ्याद्रष्टि छे. तेमने समकित तो नथी पण अगृहीत उपरांत गृहीत मिथ्यात्व छे. झीणी वात छे भाई! स्थानकवासी अने श्वेतांबरनी जेने मान्यता छे तेने समकित न होई शके. आकरी वात छे प्रभु! पण आ सत्य वात छे. अने दिगंबरमां पण नग्नपणुं अने पांच महाव्रतना परिणाम ए कांई मुनिपणानुं लक्षण नथी. अने जो पोताना माटे बनावेलो आहार ले छे तो तेने महाव्रत पण सरखां नथी, पछी समकित ने मुनिपणानी तो वात ज कयां रही? श्री दीपचंदजीए भावदीपिकामां लख्युं छे के-हुं जोउं छुं तो कोई साधु आगमनी श्रद्धावाळा देखाता नथी अने कोई वक्ता पण आगम प्रमाणे वात करे तेवो देख्यो नथी; अने जो मोढेथी सत्य वात कहेवा जाउं छुं तो कोई मानता नथी. माटे हुं तो लखी जाउं छुं के मार्ग आ छे, बाकी बीजो मार्ग जे कहे छे ते जूठा छे. अहा! २प० वर्ष पहेलां आ स्थिति छे तो अत्यारनी वात तो शुं करवी? अरे भाई! हजु समकितनां ठेकाणां न मळे त्यां मुनिपणुं केम होय? ज्यां व्यवहार श्रद्धा पण साची नथी त्यां समकितनी तो वात ज शी करवी? वळी जे कुदेवने देव माने छे, कुगुरुने गुरु माने छे तथा कुशास्त्रने शास्त्र माने छे ए तो गृहीत मिथ्याद्रष्टि छे.

प्रश्नः– आप आम कहेशो तो धर्म केवी रीते चालशे? समाधानः– धर्म तो अंदर आत्माना आश्रये उत्पन्न थाय छे अने आत्माना आश्रये चालशे. ते कांई बहारथी नहि चाले.

प्रश्नः– हा, पण बहारनी प्रभावना विना तो न चाले ने? समाधानः– प्रभावना? शेनी प्रभावना? बहारमां कयां प्रभावना छे? आत्माना आनंदनुं भान थवुं ने तेनी विशेष दशा थवी तेनुं नाम प्रभावना छे. बाकी तो बधी जूठी धमाधम छे. भाई! अहीं वीतरागना मार्गमां तो बधा अर्थमां फेर छे, दुनिया साथे कयांय मेळ खाय तेम नथी.

अहीं कहे छे-भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये जे अतत्स्वभावे अनुभवाता अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे नहि पण परस्वभावरूपे अनुभवाता एवा जे