समयसार गाथा-२०३ ] [ १४७ पुण्य-पापना भाव छे ते अपदभूत छे. भाई! ते पुण्य-पापना भाव अतत्स्वभावे छे कारण के एमां आनंदना नाथ प्रभु आत्मानो भाव कयां छे? एमां चैतन्य अने आनंद कयां छे? आ समयसार तो १८ मी वखत चाले छे. अहीं तो ४२ वर्षथी आ वात कहेता आव्या छीए.
वळी कहे छे-ते भावो अनियत अवस्थावाळा छे. शुं कीधुं? के पुण्य-पापना भाव अनियत अवस्था छे, नियत अवस्था नथी. तेनी अनियत एटले पलटती अवस्था छे. वळी तेओ अनेक छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभाव अनेक छे; ने ते क्षणिक तथा व्यभिचारी भावो छे. आनंदना नाथ प्रभु आत्मानी-अनाकुळ आनंदमय भगवाननी-सेवा छोडीने जे पुण्य-पापनुं सेवन छे ते व्यभिचार छे. अहा! शुभाशुभ भाव छे ते व्यभिचारी भाव छे. जेम व्यभिचारमां स्त्री ने पुरुष बे होय छे तेम आत्माने कर्मना निमित्ते थयेला आ भाव छे माटे व्यभिचारी भाव छे. ‘अने ते बधाय अस्थायी होवाने लीधे...’ छे अंदर? अहा! ते पुण्य-पापना भाव बधाय अस्थायी छे. पांच बोल कह्या. शुं? के पुण्य-पापना भाव-शुभाशुभ भाव
१. अतत्स्वभावे छे, आत्मस्वभावरूप नथी; २. अनियत छे, नियत रहेता नथी; ३. अनेक छे, असंख्य प्रकारना छे; ४. क्षणिक छे, प. व्यभिचारी छे अने तेथी ते बधाय अस्थायी छे आ तो मार्ग बापा! वीतरागनो मळवो बहु कठण. आ सिवायना बधा मार्ग गृहीत मिथ्यात्वना पोषक छे. हजु तो ज्यां व्यवहार श्रद्धाननाय ठेकाणां नथी त्यां धर्म केवो?
कहे छे-ते बधाय ‘पोते’-जोयुं? ते बधाय विकारी भाव ‘स्वयं’ अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे. ते भाव जेने स्थिर थवुं छे तेने स्थिर थवा लायक नथी. जुओ, छे अंदर? आ कयां टीका अत्यारनी छे? आ तो हजार वर्ष पहेलांनी छे, ने मूळ पाठ-गाथा तो बे हजार वर्षनो छे अने तेनो भाव तो जैनशासनमां अनादिनो चाल्यो आवे छे.
भाई! पुण्य-पापना भाव आस्रव छे. पण आस्रवने आस्रव कयारे मान्यो कहेवाय? ज्यारे स्वभावनी द्रष्टि थई होय त्यारे. अहो! स्वभावनी द्रष्टि थाय त्यारे आस्रवने भिन्न अने दुःखरूप माने. ज्ञानीने पण आस्रव तो होय छे पण तेने ते पोताना स्वरूपथी भिन्न माने छे. आस्रवो दुःखरूप छे, ते मारी चीज नथी अने हुं