Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१४८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ तेनो जाणनार मात्र छुं-एम ज्ञानी जाणे अने माने छे. अज्ञानी अनादिथी शुभाशुभभावना चक्रमां हेरान-हेरान थई रह्यो छे. तेने कहे छे-भाई! ते अस्थायी भाव स्थायीपणे रहेनारनुं स्थान नथी, ते अपदभूत छे. रहेठाण नाखवा योग्य स्थान तो एक नित्यानंद प्रभु आत्मा छे.

आ अपदभूतनी व्याख्या चाले छे. कहे छे-पुण्य-पापना भाव अस्थायी होवाने लीधे रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य छे अने तेथी तेओ अपदभूत छे. व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे विकल्प छे, पंचमहाव्रतादिनो जे विकल्प छे अने शास्त्र भणवानो जे विकल्प छे ते बधाय अस्थायी छे, अतत्स्वभावे छे माटे ते स्थातानुं स्थान थवा योग्य नहि होवाथी अपदभूत छे. आवी आकरी वात बापा!

हवे कहे छे-‘अने जे तत्स्वभावे अनुभवातो, नियत अवस्थावाळो, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव छे, ते एक ज पोते स्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे.’

शुं कह्युं? के जे तत्स्वभावे अनुभवातो अर्थात् भगवान ज्ञानानंदस्वभावे अनुभवातो एवो भाव-आत्मा पदभूत छे. वळी निज स्वभावभावे-चैतन्यस्वभावे अनुभवातो आत्मा नियत अवस्थावाळो छे. वळी ते एक छे. पुण्य-पापना विकल्प तो असंख्य प्रकारना अनेक छे, ज्यारे भगवान आत्मा अंदर एकरूपे छे. अहाहा...! चैतन्यमूर्ति आनंदकंद प्रभु अंदर सदा एकरूपे बिराजमान छे. वळी ते नित्य छे. नित्यानंद प्रभु आत्मा नित्य छे; अने ते अव्यभिचारी भाव छे. चैतन्यमात्र-ज्ञानमात्र भाव छे ते संयोगजनित नथी तेथी ते अव्यभिचारी भाव छे, अकृत्रिम स्वभावभाव छे. हवे आवो आत्मा कदी सांभळ्‌योय न होय ते बिचारो श्रद्धानमां लावे कयांथी? शुं थाय? ते बिचारो चारगतिमां रझळी मरे.

अहीं पांच बोलथी ज्ञानभाव-स्वभावभाव कह्यो. के ज्ञानमात्रभाव- १. तत्स्वभावे-आत्मस्वभावरूप छे, २. नियत छे, ३. एकरूप छे, ४. नित्य छे, अने प. अव्यभिचारी भाव छे अने तेथी ते स्थायी भाव छे. तेथी कहे छे ते एक ज स्थायीभाव होवाने लीधे स्थातानुं स्थान थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे. अहाहा...! नित्यानंद चैतन्यमात्र प्रभु आत्मा त्रिकाळ स्थायी-ध्रुव होवाथी रहेनारनुं