१प० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ आवतो एक आत्मा ज आस्वादवायोग्य छे एम तुं जाण. भाई! जेने धर्म करवो होय अने जन्म-मरणरहित परमानंद दशाने प्राप्त थवुं होय तेणे व्रत-अव्रतना विकल्पो छोडीने एक आत्मामां ज द्रष्टि लगाववी जोईए, केमके एक आत्मा ज त्रिकाळी ध्रुव आनंदनुं धाम छे; व्रतादिना विकल्पो तो अस्थायी छे अने तेथी स्थातानुं स्थान बनवा योग्य नथी.
आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादि तो जड पुद्गल छे, माटी छे. अने लक्ष्मी, स्त्री-कुटुंब आदि बधांय पर वस्तु छे. माटे तेनी साथे आत्माने कांई संबंध नथी; अर्थात् तेओ आत्माने रहेवानुं स्थान नथी. अहीं तो विशेष आ वात छे के-आत्मानी पर्यायमां जे व्रत-अव्रतना अनेक विकल्प उठे छे, हिंसा-अहिंसादिना परिणाम थाय छे वा गुणस्थानना भेद पडे छे ते सर्व क्षणिक, अनित्य अने अस्थायी छे अने तेथी ते धर्मीने रहेवानुं स्थान थई शकवा योग्य नथी. अर्थात् तेओ अपदभूत छे, अशरण छे. ज्यारे जे सदा एक स्थायीभावरूप छे ते नित्यानंद प्रभु आत्मा ज पदभूत छे. माटे सर्व अस्थायी भावोने छोडीने एक आत्मानो ज-शांतरसना समुद्र एवा निज स्वरूपनो ज आस्वाद करो एम कहे छे, केमके ते एक ज आस्वादवा योग्य छे.
पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए ‘रहस्यपूर्ण चिट्ठी’ लखी छे. तेमां पहेलां मंगळमां ज लख्युं छे के-‘तं बुद्धा भजत शान्तरसेन्द्रम्’ हे बुद्धिमान पुरुषो! ते शान्तरसेन्द्रना अनुभवने तमे सेवो. केवो छे ते अनुभव? अहाहा...! जे अनुभव हृदयमां प्राप्त थवाथी अनुपम सुखनी प्राप्त थाय छे अने मुक्ति लक्ष्मी शीघ्र वशमां आवे छे ते संपूर्ण मंगळोना समुद्रस्वरूप शान्तरसेन्द्रना अनुभवने तमे सेवो. ल्यो, आवुं तो बीजा गृहस्थो पर चिट्ठीमां लख्युं छे-के संपूर्ण मंगळोना समुद्रस्वरूप शान्तरसेन्द्रना अनुभवने सेवो- आस्वादो. हवे आवी वात जगतने समजवी कठण पडे. तेमां (चिट्ठीमां) कहे छे-भाई! पुण्य-पापनो रस तो कषायलो दुःखनो रस छे तेनो स्वाद छोडी दे अने अकषायस्वभावी शान्तरसेन्द्र प्रभु आत्मानो आस्वाद कर. व्यवहार-रत्नत्रयनो विकल्प पण प्रभु! कषायरस-अशांतरसरूप छे. माटे तेनो पण स्वाद छोडीने शांतरसना समुद्र एवा भगवान आत्मानो आस्वाद कर; ते एक ज आस्वादवायोग्य छे. आवो वीतरागनो मार्ग लौकिकथी साव विरुद्ध भाई! लौकिकमां तो व्रत करो ने तप करो ने भक्ति करो ने जात्रा करो एटले समजे के थई गयो धर्म. पण बापु! जेमां आत्मानो अनुभव नथी, आस्वाद नथी एवी कोई क्रिया धर्म नथी. एटले तो कह्युं छे के-