पोते स्वानुभव प्रत्यक्ष छे. सम्यक्दर्शनमां आत्मा ज्ञाननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष छे. (परना आश्रय विना सीधो ज्ञानमां जणाय छे) सम्यक्दर्शन तो प्रतीतिरूप छे, पण ते काळे मति श्रुतज्ञानथी स्वने पकडतां पोते प्रत्यक्ष थई जाय छे (वेदननी अपेक्षाए वात छे). परमार्थ वस्तु ज आवी छे, पोते पोताथी जणाय एवी चीज छे.
वळी ज्ञान अन्य ज्ञानथी जाणी शकाय छे अने पोताथी पोताने न जाणे ए वात खोटी छे. ज्ञान ज्ञानथी ज जाणे छे अने ज्ञान ज्ञानथी ज जणाय छे. आ रीते ज्ञान अन्य ज्ञानथी जाणी शकाय छे, पोते पोताने नथी जाणतुं एवुं माननार नैयायिकोनो निषेध थयो. ज्ञान पोते पोताने न जाणे अने परने जाणे एम केम बनी शके? कदी य न बनी शके.
खरेखर तो ज्ञाननी पर्याय स्व तरफ ढळी एटले ज्ञान प्रत्यक्ष थयुं. प्रत्यक्ष स्वानुभूतिनी दशा प्रगट थई गई. ते स्वानुभूतिनी दशामां जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान- ज्ञानने (ज्ञायकने) जाणे, साथे अन्यने पण जाणे. द्रव्यमां स्व-परने जाणवानी शक्ति छे, ते जाणवानुं कार्य तो प्रगट पर्यायमां ज थाय छे.
क्रियाकांडवाळाओने आ आकरुं लागे छे. बाह्यत्यागरूप संयम ए आत्मा प्राप्त करवानुं साधन छे एम तेओ माने छे. अहीं तो स्पष्ट कहे छे के ‘स्वानुभूत्या चकासते’ एटले के अनुभूति ए एक ज उपाय-साधन छे.
कळशमां त्रण अस्तिथी वात लीधी छे. ‘भावाय’ कहेतां सत् स्वरूप शुद्ध चैतन्य प्रभु ते द्रव्य अस्ति, ‘चित्स्वभावाय’ कहेतां तेनो ज्ञान स्वभाव ते गुण अस्ति अने ‘स्वानुभूत्या चकासते’ कहेतां त्रिकाळी ज्ञायकभाव-तेनो जे चित्स्वभाव भाव तेने स्वानुभूतिथी प्रकाशे छे ते स्वानुभूति, ते पर्याय अस्ति. केवी अद्भूत शैली! आमां बार अंगनो सार छे. अमृतचंद्राचार्ये गजबनुं काम कर्युं छे. एकलां अमृत रेडयां छे. कहे छे के चैतन्य जेनो स्वभाव छे एवी स्वभाववान भाव-स्वरूप वस्तु-आत्मा, ते स्वानुभूतिथी जणाय छे.
अहीं अस्तिथी वात करी छे. अस्ति एटले एकलुं सत् सत् सत्; तेमां बधुं आवी जाय छे. ज्यारे विस्तारथी समजावे त्यारे कहे के अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध तेमां नथी. ज्यां अस्तिथी जाण्युं त्यां भेगुं नास्तिनुं ज्ञान आवी जाय छे. आस्रव हेय छे, संवर उपादेय छे ते बधुं आमां आवी जाय छे. वस्तु शुद्ध छे त्रिकाळ, तेनो ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ, तेनी परिणति शुद्ध निर्मळ, त्रणेय निर्मळ. ते निर्मळमां मलिनता नथी. शुं नथी ते कहेवानी जरूर नथी. ते त्रणे जाणतां तेमां शुं नथी तेनुं ज्ञान आवी गयुं. आवो गंभीर अर्थ छे