तो हुं आवो छुं. अहो! प्रत्येक गाथा अने कळशदीठ ज्ञाननी पूर्णताने वर्णवी छे. ‘चिन्मात्र मूर्ति छुं.’ पोताने अने जगतना अन्य द्रव्यो, तेमना गुण-पर्यायोने जाणनार मात्र द्रव्य छुं. शक्तिओना वर्णनमां जीवत्व शक्ति, चिति शक्ति, ज्ञान शक्ति, सर्वज्ञ शक्ति वगेरे दरेकमां ज्ञान आवे छे. ज्ञान विना बीजी चीजने अने पोताना अनंतगुणोने जाणे कोण? बीजा गुणो कांई जाणता नथी, जाणनार तो ज्ञान छे. आवा ज्ञानमात्र द्रव्यस्वभावनुं ज टीकाना काळमां घोलन छे, एवो अर्थ छे.
हवे ‘अनुभूतिनी परम विशुद्धि थाओ’ एम कहे छे. कळशटीकाकारे (राजमल्लजीए) ‘अनुभूति’ नो अर्थ हुं त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप छुं एम द्रव्यद्रष्टिनो- सम्यक्दर्शननो जे विषय छे ते अर्थमां लीधो छे. ‘चिन्मात्र मूर्ति’ कहेतां जेम शुद्ध शुद्ध एक चैतन्यस्वभाव लीधो तेम. अहाहा...!! ‘अनुभूति’ कहेतां अनंत अनंत अतीन्द्रिय सहज सुखस्वरूप ज हुं छुं एम लीधुं छे. समयसारनी ७३ मी गाथामां आवे छे ने के- जे पर्यायमां षट्कारकोना समूहरूप परिणमन-भले सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्यायरूप हो-तेथी पार-भिन्न अनुभूतिमात्र शुद्ध- एवो अहीं द्रव्यद्रष्टिना विषयरूप ‘अनुभूति’ नो अर्थ लीधो छे. आवी ज वात प्रवचनसार-चरणानुयोग चूलिका (गाथा २०२, टीका) मां लीधी छे. त्यां सम्यक्द्रष्टि पुरुष जेने ज्ञानज्योति प्रगट थई छे ते मुनिपणुं- अंतरस्थिरता करवा मागे छे. ते स्त्री पासे रजा मागे छे. कहे छे-आ शरीरने रमाडनारी हे स्त्री! तुं मने छोड, केमके हुं मारी अनुभूति (रमणी) जे अनादिनी छे एनी पासे जवा मागुं छुं- अहीं ‘अनुभूति’ ए पर्याय नहीं, पण वस्तु-मारो नाथ जे त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप ज छे ते-एनी पासे जवा मागुं छुं. कळशटीकाकारे पण ‘अनुभूति’ एटले त्रिकाळ अनंत सहज-सुखस्वरूपआत्मा एम लीधुं छे. मुनिने आवा चिन्मात्र, अनुभूतिस्वरूप शुद्धात्मानुं ज टीकाना काळमां घोलन छे तेथी ज विशेष विशेष निर्मळता थशे एम भावना छे.
मारी पर्यायमां अनुभूति-स्वभावने अनुसरीने निर्मळ परिणति छे एम सिद्ध करी ते अनुभूतिनी-परिणतिनी परम विशुद्धि कहेतां समस्त रागादि विभाव रहित उत्कृष्ट निर्मळता थाओ एम भावे छे. भले टीकाना काळमां निर्मळता पूर्ण थई नथी, परंतु टीकाना काळमां मारुं ध्येय तो ध्रुवधाम सर्वज्ञशक्ति-स्वभाव ज छे. एटले ध्येयने कारणे मारी शुद्धि वधती जाय छे, केमके ध्येयमांथी मारी द्रष्टि खसती नथी. टीका करतां मारी परम विशुद्धि थाओ एनो अर्थ ए के टीकाना काळमां मारी परम विशुद्धि थाओ. त्यां मारुं ध्येय तो द्रव्यस्वभाव छे, पण आ शास्त्रना भावो विशेष स्पष्ट थाय एवो विकल्प आव्या करे छे. छतां टीका लखती वेळा पण मारुं जोर तो अंदरमां शुद्ध द्रव्य उपर वर्ते छे, तेथी मारी परम विशुद्धि थशे एम निश्चय छे. मने विशुद्धि नथी एम नथी, पण परम विशुद्धि