आचार्यदेव कहे छे के आ समयसार ग्रंथनी टीका करवानुं फळ ए चाहुं छुं के- मारी परिणति रागादि रहित शुद्ध थाओ. टीका करवामां परद्रव्य उपर लक्ष छे. एक तरफ एम कहे के परद्रव्य उपर लक्ष करे तो राग थया विना रहे नहीं. मोक्षपाहुडमां १६मी गाथामां कह्युं छे के ‘परदव्वाओ दुग्गई’. (एटले परद्रव्य उपर लक्ष जशे तो राग थशे अने तेथी आत्मानी दुर्गति थशे एटले चार गतिमां भ्रमण थशे.) टीकाना शब्दो छे ते परद्रव्य छे. परद्रव्य पर लक्ष जाय तो राग तो छे; परतुं जोर विकल्प उपर नथी, जोर ध्रुवस्वभाव उपर छे माटे आ टीकाथी मारी परिणति राग रहित शुद्ध थाओ एम अपेक्षाथी कह्युं छे. उपदेशनो विकल्प ऊठे छे ए राग छे; राग छे एटलुं बंधन छे. रागनी दिशा पर तरफ छे, रागनी दशा मेली छे; पण मारुं जोर द्रव्यस्वभाव उपर होवाथी मने शुद्ध स्वभावनी प्राप्ति थशे एम कह्युं छे. परिणतिमां परम विशुद्धि थाओ, बीजी कोई चाहना नथी. टीका करवाथी मारी ख्याति वधे के प्रशंसा थाय के लोक अभिनंदन आपे ए चाहना नथी. हुं टीकाना फळमां लाभ, ख्याति, पूजादि चाहतो नथी. आ प्रकारे आचार्यदेवे टीका करवानी प्रतिज्ञा लीधी अने गर्भितपणे एना फळनी प्रार्थना करी.