Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 1.

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जीव–अजीव अधिकार

गाथा–१

अथ सूत्रावतारः–

वंदित्तु सव्वसिद्धे
धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं।। १।।

हवे मूळगाथासूत्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य ग्रंथना आदिमां मंगळपूर्वक प्रतिज्ञा करे छेः -

ध्रुव, अचल ने अनुपम गति पामेल सर्वे सिद्धने
वंदी कहुं श्रुतकेवळी–भाषित समयप्राभृत
अहो! १.

गाथार्थः– आचार्य कहे छेः हुं [ध्रुवम] ध्रुव, [अचलाम्] अचळ अने [अनौपम्यां] अनुपम-ए त्रण विशेषणोथी युक्त [गतिं] गतिने [प्राप्तान्] प्राप्त थयेल एवा [सर्वसिद्धान्] सर्व सिद्धोने [वंदित्वा] नमस्कार करी, [अहो] अहो! [श्रुतकेवलिभणितम्] श्रुतकेवळीओए कहेला [इदं] [समयप्राभृतम्] समयसार नामना प्राभृतने [वक्ष्यामि] कहीश.

टीकाः– अहीं (संस्कृत टीकामां) ‘अथ’ शब्द मंगळना अर्थने सूचवे छे. ग्रंथना आदिमां सर्व सिद्धोने भाव-द्रव्य स्तुतिथी पोताना आत्मामां तथा परना आत्मामां स्थापीने आ समय नामना प्राभृतनुं भाववचन अने द्रव्यवचनथी परिभाषण शरू करीए छीए- एम श्री कुंदकुंदाचार्य कहे छे. ए सिद्ध भगवंतो, सिद्धपणाने लीधे, साध्य जे आत्मा तेना प्रतिच्छंदना स्थाने छे, - जेमना स्वरूपनुं संसारी भव्य जीवो चिंतवन करीने, ते समान पोताना स्वरूपने ध्याईने, तेमना जेवा थई जाय छे अने चारे गतिओथी विलक्षण जे पंचमगति मोक्ष तेने पामे छे. केवी छे ते पंचमगति? स्वभावभावरूप छे तेथी ध्रुवपणाने अवलंबे छे. चारे गतिओ परनिमित्तथी थती होवाथी ध्रुव नथी, विनाशिक छे; ‘ध्रुव’ विशेषणथी पंचमगतिमां ए विनाशिकतानो व्यवच्छेद थयो. वळी ते गति